छिलकों की छाबड़ी : बिना समर्थन के…
मैं समर्थन की समस्या से विगत एक दशक से परेशान हूं। कहलाने को घर का मुखिया हूं, कमाता हूं, सबको खिलाता-पिलाता हूं, लेकिन तीनों बच्चों के समर्थन से सरकार घर में पत्नी की ही चल रही है। मैं सदैव अल्पमत में ही बना रहा, एकाध बार ऐसा अवसर भी आया कि मैंने रिश्वत देकर एक-दो बच्चों को तोडऩे का प्रयत्न किया, लेकिन सत्तारूढ़ सरकार के सामने नए मोर्चे को अपने पक्ष में करने में सर्वथा विफल रहा। बच्चों को कई बार समझाया भी कि यारो, कभी तो इस घर का मुख्यमंत्री हमें भी बनाओ। छह-छह महीने ही सही, लेकिन एक बार तो बनाओ। इधर बच्चों का कहना है कि ऐसी सरकार बनाने से क्या फायदा जो अल्प समय में ही गिर जाए। इससे बढिय़ा तो मम्मी की सरकार भली जो उन जैसे दलितों-पिछड़ों का लालन-पालन बिना किसी शर्त के करती तो रहेगी। आप सत्तारूढ़ हुए तो हमसे पढ़ाई-लिखाई तथा नौकरी-धंधे की अपेक्षा करेंगे। यह समस्या मम्मी की सरकार में बिल्कुल नहीं है। हमें टीवी देखने से फुरसत मिले तो कुछ करें, वरना मायावती सरकार के अपने मजे हैं। वे यह भी कहने लगे हैं कि पापा सरकार चलाना आपके बूते के बहार है। मम्मी साम, दाम, दंड, भेद चारों नीतियों के अलावा आपके वेतन से गबन-घोटाले और भ्रष्टाचार का मार्ग अख्तियार करके हम निर्दलीयों को अपने पक्ष में बनाए रखती है। आप जेबखर्ची के नाम पर कभी फूटी कौड़ी नहीं दे पाए।
हम बाजार से सामान लाते हैं, उसमें घपला करके दलाली खा जाते हैं। नकली बिल प्रोड्यूस कर देते हैं। मनचाहा साबुन तथा शैम्पू लगाते हैं एवं कुरकुरे, बिस्कुट व मक्खन उड़ाते हैं, भला आप यह सब सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं? उनसे मेरा तर्क होता है कि यह मेरी तनख्वाह के बूते पर हो रहा है, फिर भी समर्थन तुम्हारी मम्मी को मिल रहा है, या तो सरकार कृतघ्न है, तो वे हंसते हैं और कहते हैं कि पापा पहले राजनीति को जानो तथा कूटनीति को पहचानो, तो समझो कि मुख्यमंत्री पद कैसे पाया जाता है। आप साफ-सुथरी सरकार बनाने का कोई सपना देख रहे हैं। समर्थन की समस्या अकेले आपकी नहीं है। सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इससे जूझ रहे हैं। कहीं निर्दलीयों ने थूक कर चाट लिया है, तो कहीं दल का दल बदलकर सत्तारूढ़ हो गया है। खतरा बराबर सब जगह है। यही खतरा तो हमारा परम सौभाग्य है। अभी एक दल को बहुमत मिल जाए तो निर्दलीयों को, अल्पमत वालों को पूछे कौन? मेरे पास उनके प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं तथा मेरी समर्थन की समस्या ज्यों की त्यों मुंह फाड़े खड़ी है। मैं ऊहापोह में हूं और किंकर्तव्यविमूढ़ भी, ठीक अल्पमत सरकार की तरह जिसमें कुछ भी उगलते बनता है और न ही निगलते। सांप-छुछूंदर का खेल है सरकार, जैसे मैं, जबकि मेरे पास पर्याप्त बहुमत है। कहते हैं चौबीस बरस न सही बारह बरस में भी फिरते हैं घूरे के दिन। अभी दो साल शेष हैं शायद। लेकिन कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि मेरी अपनी संतानों ने ही मुझसे मुंह फेर रखा है और वे मेरा समर्थन नहीं कर रहे हैं। बिना समर्थन के मैं परेशान हूं।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
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