शव संवाद-60
वेतन हर महीने बुद्धिजीवी से लड़ता आया है। इसकी वजह से घर की कलह कभी बीवी से सुलह नहीं होने देती। दरअसल बुद्धिजीवी का वेतन बिगड़े मूड में रहता है। वह पैदाइशी झगड़ालू है। न उसे खुद पर भरोसा और न ही कभी इतनी हिम्मत कर सका कि कहीं चौराहे पर खड़ा होकर बता सके कि बुद्धिजीवी के साथ जीना ‘वेतन’ के लिए कितना महंगा है। दरअसल वेतन अब बुद्धिजीवी हो गया है, वरना पारिश्रमिक के दम पर देश फिदा है, अपनों की बारात से लदा है। वेतन के साथ महीना बंधा है, लेकिन पारिश्रमिक महीनों से आगे निकल कर देश की हर घड़ी में उपलब्ध है। न जाने कब अपनी पार्टी की सत्ता आ जाए, तो हम देश से पारिश्रमिक लेने के हकदार हो जाएंगे। किसी ने कहा पारिश्रमिक दिल्ली सरकार कहीं अधिक देती है, तो इसीलिए नेताओं ने पाले बदल लिए। वेतन कभी घर वापसी नहीं करता, लेकिन पारिश्रमिक हर दिन कमाने की लत के साथ लौट आता है। इसलिए अब वेतन वाले भी पारिश्रमिक कमाने लगे हैं। दरअसल यह आइडिया बुद्धिजीवी को भी मिलता रहता है। उसे घरवाले भी समझाते हैं कि वेतन के साथ पारिश्रमिक भी कमाना सीखो, मगर वह डरता है कि तब वह ‘बुद्धिजीवी’ नहीं रहेगा। उस दिन वेतन ने खुद कहा कि उसकी अस्मिता के लिए बुद्धिजीवी को भी पारिश्रमिक लेना होगा। यह सुनते ही बुद्धिजीवी स्वप्न लोक में चला गया, ‘उसके इर्द-गिर्द पारिश्रमिक के नजारे खड़े हो गए। वह हर ठेके में, सरकार की परियोजना में, बढ़ते ऋण में, कार्यालय के फर्नीचर में और घाटे की रेल में भी रेलमपेल कर रहा था। उससे उसका पड़ोसी, बस्ती का हर व्यक्ति, सरकार का हर पक्ष और पूरा सिस्टम खुश था। पहली बार उसे पता चला कि देश में वेतन नहीं, खुशहाली-तरक्की के लिए पारिश्रमिक बंट रहा है’,
लेकिन तभी वह जागा क्योंकि पत्नी बोल रही थी, ‘अजी! इस बार वेतन कब मिलेगा।’ वह सरकारी बुद्धिजीवी होता, तो पहली तारीख को ही वेतन होता, मगर प्राइवेट नौकरी में इस प्रश्न को समेटना कितना मुश्किल है। उसके वेतन से कितना पारिश्रमिक सरकार निकाल लेती है या देश की अर्थव्यवस्था ने ‘प्राइवेट वेतन’ से कितना निकाल लिया है, इसकी जवाबदेही में बुद्धिजीवी अपने घर की अदालत के सामने कसूरवार है। बुद्धिजीवी ने खींच कर सारा वेतन घर की नुमाइश में रख दिया। वहां वेतन के टुकड़े हो रहे थे। छोटे-छोटे टुकड़े। असहाय टुकड़े कभी बेटे की स्कूल फीस को गिन रहे थे, तो कभी बेटी के टूटे खिलौने को जोड रहे थे। बुद्धिजीवी की पॉकेट में पॉकेट मनी के रूप में वेतन बिखर चुका था। वह अगले महीने के लिए खुद से प्रश्न कर रहा था कि तभी उसने ‘वेतन’ के चीखने की आवाज सुनी। दबी सी आवाज में वह बुद्धिजीवी को कोस रहा था, ‘तुम्हारी औकात में आकर मैं बदनाम हो रहा हूं। सरकारी पगार वाले भी तो हैं जो ‘वेतन’ को इज्जत देते हैं। मेरी रिश्तेदारी में सरकारी वेतन की पलकें हमेशा बिछी रहती हैं। वहां वेतन को देखकर व्यवस्था पारिश्रमिक दे रही है। वहां वेतन में इतना दम है कि वह पारिश्रमिक से शादी करके हर माह दहेज वसूल रहा है और एक तू बुद्धिजीवी बना मुझे कुंवारा मार रहा है।’ हताश, बीमार और कमजोर बुद्धिजीवी का वेतन उस दिन बुद्धिजीवी से बहस करने में भी हार गया। उसमें न आस थी और न ही सांस थी। वह वेतन का शव था, जो बुद्धिजीवी की जेब में उधार की सूची में प्राण त्याग चुका था। वेतन की मौत का सदमा उठाए बुद्धिजीवी अपनी घिसी-पिटी कलम से दफ्तर का काम कर रहा था। बुद्धिजीवी को अब हर दिन वेतन की लाश देखकर भी यह भरोसा करना पड़ता है कि कभी तो उसे भी पारिश्रमिक मिलेगा। -क्रमश:
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
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