वसुधैव कुटुंबकम परंपरा कब तक निभाएंगे

भारत की महानता केवल ब्रह्मांड के ज्ञान से भरपूर वेदों, पुराणों, उपनिषदों व श्रीमद्भागवदगीता जैसे महान ग्रंथों में ही लिपिबद्ध नहीं है, बल्कि प्राचीन से समूची दुनिया का नेतृत्व करने वाले ‘विश्व गुरु’ भारत की राष्ट्रवादी विचारधारा, शिक्षा, संस्कृति व संस्कारों का अक्स धरातल पर आज भी दिखाई देता है। अलबत्ता भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की नीति व ‘अतिथि देवो भव’ की पुरातन परंपरा को वर्तमान में भी निभा रहा है, लेकिन हालात बदल चुके हैं…

अनादिकाल से भारतीय शिक्षा, संस्कृति व संस्कार पूरे विश्व में प्रसिद्ध रहे हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ अर्थात ‘धरती ही परिवार है’। भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र का यह संस्कृत वाक्यांश ‘महा उपनिषद’ में लिपिबद्ध है तथा देश की संसद के प्रवेश द्वार पर भी अंकित है। इतिहास के पन्ने चश्मदीद हैं कि कई मुल्कों में जब लोग युद्धों की कत्लोगारत व मजहब के नाम पर उत्पीडऩ का शिकार होकर हिजरत को मजबूर हुए तो भारत ने अपने ‘तैत्तिरीय उपनिषद’ में लिखित प्रसंग ‘अतिथि देवो भव’ जैसी महान परंपरा को हमेशा निभाया है। मान्यता है कि सन् 641 ई. में अरब सेना ने ‘नेहावंद’ की जंग में ईरान (पर्शिया) के ‘सासानी वंश’ के बादशाह ‘यज्देगर्ड शहरियार’ को हलाक करके फारसी सल्तनत का सूर्यास्त कर दिया था। अरब सेना की कत्लोगारत से बचने के लिए सैकड़ों फारसी लोग शरणार्थी बनकर समुद्र के रास्ते से भारत के तटीय द्वीप ‘दीव’ पर पहुंचे थे। उस वक्त गुजरात की ‘वलसाड’ रियासत के राजा ‘जदी राणा’ ने उन पर्शिया लोगों को शरण देकर ‘संजन’ नामक कस्बा आबाद किया था। भारतभूमि पर जदी राणा द्वारा पारसी लोगों को पनाह की उस दास्तान का जिक्र एक पारसी अकीदतमंद ‘दस्तूर बहमन कैकोबाद’ ने अपनी किताब ‘किस्सा ए संजान’ में किया था। उन पारसी शरणार्थियों की याद में गुजरात के संजन नामक स्थान पर सन् 1920 में एक ‘स्मारक स्तम्भ’ भी तामीर किया गया है। राजा जदी राणा की कृतज्ञता की याद में पारसी लोग ‘संजन दिवस’ भी मनाते है तथा आज भी फारसी कैलेंडर का उपयोग करते हैं। दूसरी जंगे अजीम के दौरान सन् 1939 में सेवियत संघ तथा ‘एडोल्फ हिटलर’ की जर्मन सेनाओं ने पोलैंड पर हमला करके उस मुल्क को तकसीम कर दिया था।

जंग के दौरान पोलैंड के प्रधानमंत्री ‘यूजेनियस सिकोरस्की’ को जान बचाने के लिए अपना मुल्क छोडऩा पड़ा था। जर्मन व सोवियत संघ की सेनाओं ने हजारों पोलिश लोगों को यातनाघरों में डाल दिया था। पोलैंड के लाखों लोग बेघर हो चुके थे। जंग के दौरान पोलैंड की सेना ने अपने सैकड़ों नागरिकों को शिप में बैठाकर समुद्र में छोड़ दिया था ताकि वे किसी मुल्क में जाकर शरण ले सकें। लेकिन पोलैंड के लोगों को किसी भी मुल्क ने शरण देने की जहमत नहीं उठाई थी। आखिर समंदर में भटक कर आशियाना तराश रहे उन लोगों का समुद्री जहाज गुजरात के जामनगर के तट पर पहुंचा तो भारत पर हुक्मरानी करने वाली अंग्रेज हुकूमत ने पोलिश लोगों को पनाह देने की मुखाल्फत कर दी थी। उस समय जामनगर के महाराजा ‘जाम साहेब दिग्विजय सिंह जडेजा’ ने पोलैंड के शरणार्थियों को अपनी रियासत में पनाह देकर दरियादिली की मिसाल कायम की तथा पोलैंड के रिफ्यूजी बच्चों की पढ़ाई के लिए सन् 1942 में ‘पोलिश बाल शिविर’ की स्थापना भी की थी। वह बाल शिविर वर्तमान में ‘बालचड़ी’ के सैनिक स्कूल का हिस्सा बन चुका है। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पोलैंड सरकार ने महाराजा दिग्विजय सिंह को मरणोपरांत अपने सर्वोच्च सम्मान ‘कमांडर्स क्रॉस ऑफ द आर्डर ऑफ द मेरिट’ से सरफराज किया था। पोलैंड की राजधानी ‘वॉरसा’ में बना ‘कोल्हापुर मेमोरियल’ तथा ‘गुड महाराजा स्कवायर स्मारक’ जाम साहेब महाराजा ‘दिग्विजय सिंह’ को समर्पित है। अंग्रेज हुकूमत के दौर में महाराजा दिग्विजय सिंह ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी का हिस्सा बनकर ‘राजपुताना राइफल्स’ में भी अपनी सेवाएं दी थी। दूसरी जंगे अजीम के दौरान ही अमरीका द्वारा हिरोशिमा व नागासाकी पर एटमी हमले के बाद जापान ने आत्मसर्मपण कर दिया था। नतीजतन इंडोनेशिया पर जापान की हुक्मरानी खत्म हो चुकी थी। मगर ‘नीदरलैंड’ की ‘डच’ सेना ने इंडोनेशिया पर कब्जा करने की तजवीज बनाकर पेशकदमी को अंजाम दे दिया था। डच सेना इंडोनेशिया के शीर्ष नेतृत्व को हिरासत में लेकर वहां एक बड़े मसंूबे को अंजाम देने की फिराक में थी। उस वक्त ‘रायल इंडियन एयरफोर्स’ के पायलट ‘बीजू पटनायक’ ‘ओल्ड डकोटा एयरक्राफ्ट’ लेकर ‘जर्काता’ पहुंचे तथा इडोनेशिया के प्रथम राष्ट्रपति ‘सुकर्णो’ व प्रधानमंत्री ‘सुतन सजाहिर’ को डच सेना की कत्लोगारत से महफूज बचाकर दिल्ली लेकर आ गए थे। उस रेस्क्यू मिशन की दास्तान ए सुजात के लिए ओडिशा के साबिक मुख्यमंत्री बीजू पटनायक को इंडोनेशिया ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘भूमि पुत्र’ से नवाजा था।

ब्रिटिश इंडियन आर्मी के फाइटर पायलट के तौर पर बीजू पटनायक ने दूसरी जंगे अजीम के दौरान जर्मन सेना पर बमबारी करके ‘सोवियत संघ’ की सेना को एक बड़े संकट से बचाया था। युद्ध में बहादुरी के लिए बीजू पटनायक को रूस ने भी अपना सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान किया था। बीजू पटनायक के इंतकाल पर उनके पार्थिव शरीर पर भारत सहित इंडोनेशिया व रूस ने भी अपने राष्ट्रीय ध्वज डालकर खिराज ए अकीदत पेश की थी। मगर हैरत की बात यह है कि विश्व में भारत का इकबाल बुलंद करने वाले महानायक जो देश की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत होने चाहिए वे भारतीय इतिहास में गुमनाम है। भावार्थ यह है कि अपनी हजारों वर्ष पुरानी समृद्ध दार्शनिक विरासत की परंपराओं को निभाकर भारत मजलूमों के लिए हमेशा मसीहा बना है। भारत की महानता केवल ब्रह्मांड के ज्ञान से भरपूर वेदों, पुराणों, उपनिषदों व श्रीमद्भागवदगीता जैसे महान ग्रंथों में ही लिपिबद्ध नहीं है, बल्कि प्राचीन से समूची दुनिया का नेतृत्व करने वाले ‘विश्व गुरु’ भारत की राष्ट्रवादी विचारधारा, शिक्षा, संस्कृति व संस्कारों का अक्स धरातल पर आज भी दिखाई देता है। अलबत्ता भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की नीति व ‘अतिथि देवो भव’ की पुरातन परंपरा को वर्तमान में भी निभा रहा है लेकिन हालात बदल चुके हैं। जब पड़ोस में आतंक की दारूल हुकूमत पाकिस्तान तथा बांग्लादेश व मालदीव जैसे एहसान फरामोश मुल्क मौजूद हों तो नीति के महांपडित ‘विदुर’ का प्रसंग ‘शठे शाठ्यंम समाचरेत’ भी याद रखना होगा। भारत का गौरव बढ़ाने वाले महापुरुषों का योगदान याद रखना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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