श्रीमद्भगवद गीता के उपदेश की प्रासंगिकता

सैकड़ों इंकलाबी चेहरों के बलिदान से भारत आजाद हुआ था, लेकिन आजादी के बाद देश के नीति निर्माताओं ने हिंदोस्तान को धर्मनिरपेक्षता का नकाब पहना दिया। नतीजतन, सनातन धर्म का प्रभावशाली ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित नहीं हुआ…
‘वीर भोग्या वसुंधरा’, श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक का यह अंश सेना की ‘राजपूताना राइफल’ का आदर्श वाक्य है। अर्थात ‘केवल शूरवीर व शक्तिशाली लोग ही धरती का उपयोग कर सकते हैं।’ ‘स्वधर्में निधानं श्रेय:’, गीता के तीसरे अध्याय के 35वें श्लोक का यह प्रसंग ‘मद्रास रेजिमेंट’ का ध्येय वाक्य है। अर्थात अपने धर्म के लिए वीरगति को प्राप्त होना गर्व का विषय है। ‘युद्धाय कृत निश्चय:’, दूसरे अध्याय के 37वें श्लोक का यह अंश ‘गढ़वाल राइफल’ का आदर्श वाक्य है अर्थात ‘युद्ध का निश्चय करो’। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात ‘तेरा अधिकार केवल कर्म करना है। आप कर्मों के फल के हकदार नहीं हैं।’ भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक का यह प्रसंग मुस्लिम राष्ट्र इंडोनेशिया की वायुसेना की स्पेशल यूनिट ‘पाशखस’ का आदर्श वाक्य है। मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन महाभारत युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर अर्जुन को उपदेश दिया था। इस दिन को मोक्षदा एकादशी व गीता जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर युद्ध के लिए तैयार खड़ी कौरव सेना में भीष्म पितामह, अपने गुरु, चचेरे भाइयों व सगे संबंधियों को देखकर अर्जुन के मन में अहिंसा का भाव उत्पन्न हो गया था। भीष्म पितामह व गुरु द्रोणाचार्य के प्रति अर्जुन के मन में अपार श्रद्धा व मोह था, मगर दोनों अजेय योद्धाओं के जीवित रहते पांडव महाभारत युद्ध में जीत प्राप्त नहीं कर सकते थे। उस समय क्षत्रिय धर्म भूलकर युद्ध से विमुख हो चुके सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के लिए एक मार्गदर्शक की जरूरत थी।
अत: अर्जुन के उस मोह का नाश करने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि पर अर्जुन को जो उपदेश दिया था, वो दिव्य ज्ञान श्रीमद्भगवदगीता में लिपिबद्ध है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बने तथा युद्ध की रणनीति बनाकर विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गीता उपदेश की प्रेरणा से अर्जुन ने ‘नंदीघोष’ रथ पर सवार होकर कुरुक्षेत्र की समरभूमि पर अपने गांडीव धनुष की बाणवर्षा से जिस शौर्य पराक्रम का परिचय दिया था। वो शूरवीरता एक महागाथा बन चुकी है। गीता के जिस उपदेश ने अर्जुन को धर्म व कर्म का मार्ग दिखाया था, उस कर्म मार्ग का गुणगान विदेशी लोग भी कर चुके हैं। विश्व की कई सफल हस्तियों ने गीता के 18 अध्यायों व सात सौ श्लोकों को प्रेरणादायी बताया है। जापान पर हुए परमाणु बम के हमले ने दूसरे विश्व युद्ध की तस्वीर बदलकर उस जंग का अंजाम तय कर दिया था। मगर समझने वाली बात यह है कि परमाणु बम के जनक अमेरिकी भौतिक विज्ञानी ‘जूलियस राबर्ट ओपेनहाइमर’ के मन में भगवद्गीता के ज्ञान को जानने की प्रबल जिज्ञासा थी। ओपेनहाइमर ने गीता का अनुवाद पढऩे के बजाय गीता के मूल स्वरूप को जानने के लिए सन् 1933 में संस्कृत भाषा सीख ली थी। 1960 के दशक में एक गुफ्तगू के दौरान ओपेनहाइमर ने जिक्र किया था कि वह गीता के ग्यारहवें अध्याय के 32वें श्लोक ‘काले: अस्मि लोकक्षयकृत्प्रावद्धो लोका समाहर्तुमिह प्रवृत:’ से काफी प्रभावित थे। अर्थात् ‘मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं।’ ओपेनहाइमर का तर्क था कि 16 जुलाई 1945 को अमेरिका में पहले परमाणु परीक्षण के भयंकर मंजर के बाद उन्हें भगवद्गीता का यही श्लोक याद आया था।
गीता का गहन अध्ययन करने वाले अमेरिकी दार्शनिक ‘हेनरी डेविड थोरो’ का तर्क था कि ‘भगवद्गीता में वर्णित सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की सर्वकालिक प्रासंगिकता सदैव रहेगी। गीता के दिव्य ज्ञान को विश्व के समस्त धन से भी नहीं खरीदा जा सकता।’ इंग्लैंड के दार्शनिक ‘एफएच मोलेम’ के अनुसार ‘जिन गूढ़ मंत्रों का समाधान पश्चिमी लोग अभी तक नहीं खोज पाए, उनका समाधान गीता में शुद्ध व सरल रीति से हो चुका है। गीता जी मेरे लिए साक्षात् योगेश्वरी माता हैं’। अमेरिकी लेखक ‘राल्फ काल्डो एमरसन’ तथा जर्मन विद्वान ‘काल्टर शू ब्रिंग’ जैसे गीता के ज्ञान के विदेशी प्रशंसकों की फेहरिस्त काफी लंबी है। स्मरण रहे कि हिंदोस्तान की सरजमीं से बर्तानियां हुकूमत को उखाडऩे वाले कई इंकलाबी चेहरों के लिए भी गीता का ज्ञान प्रेरणा बना था। पुणे में 22 जून 1897 को ब्रिटिश अधिकारियों ‘वाल्टर चाल्र्स रैण्ड’ व ‘आयस्र्ट’ को हलाक करने वाले आजादी के गुमनाम नायक ‘दामोदर हरि चापेकर’ ने 18 अप्रैल 1898 को हाथ में भगवद्गीता पकड़ कर फांसी का फंदा चूम लिया था। बंगाल के क्रांतिकारी खुदी राम बोस ने सन् 1908 में फांसी के समय हाथों में भगवद्गीता पकड़ी थी। अंग्रेज सैन्य अधिकारी ‘विलियम हट कर्जन वाइली’ को हलाक करने वाले क्रांतिकारी ‘मदन लाल ढींगरा’ ने लंदन में 17 अगस्त 1909 को तख्ता-ए-दार पर झूलते वक्त वंदे मात्रम का उद्घोष करके हाथों में ‘गीता’ पकड़ी थी। सिंध से ताल्लुक रखने वाले उन्नीस वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी ‘हेमू कालानी’ ने 21 जनवरी 1943 को गीता को हाथों में पकड़ कर फांसी का फंदा चूम लिया था। सैकड़ों इंकलाबी चेहरों के बलिदान से भारत आजाद हुआ था, लेकिन आजादी के बाद देश के नीति निर्माताओं ने हिंदोस्तान को धर्मनिरपेक्षता का नकाब पहना दिया। नतीजतन, यह सच है कि सनातन धर्म का प्रभावशाली ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित नहीं हुआ।
विश्व के कई विद्वानों ने भगवद्गीता के दिव्य ज्ञान व दार्शनिक गहराई तथा आध्यात्मिकता के महत्व को विस्तार से समझा। इसीलिए जीवन-मृत्यु के दुर्लभ सत्य व जीवन के हर पहलू को समेटने वाला अमरग्रंथ भगवद्गीता देश-विदेश में आज भी प्रासंगिक है। बहरहाल धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर भगवद्गीता के ज्ञान से प्रेरित होकर अर्जुन ने शस्त्र उठाए तथा युद्ध के अंजाम तक अपने कत्र्तव्य मार्ग से विचलित नहीं हुए। जब पड़ोस में पाकिस्तान, चीन व बांग्लादेश जैसे आतंक के हिमायती मुल्क मौजूद हों तो बुद्ध का शांति संदेश नहीं, बल्कि श्रीमद्भगवदगीता के उपदेश पर अमल करने की जरूरत है। चरित्र निर्माण के उत्तम ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता का तार्किक ज्ञान शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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