जीने की सही कला सिखाती है श्रीमद्भागवतगीता
श्रीमद्भगवद्गीता एक अद्भुत एवं अद्वितीय ज्ञानग्रंथ है, जो न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि जीवन के प्रत्येक पहलू को समझने और जीने की कला को भी प्रस्तुत करता है। सार रूप में गीता के संदेशों में तीन प्रमुख मार्गों- कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय दृष्टिगत होता है। ये तीनों मार्ग जब एक साथ समन्वित रूप में अपनाए जाते हैं, तो मनुष्य को न केवल जीवन के कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं, बल्कि उसे आत्मिक शांति, संतोष और मोक्ष की दिशा में अग्रसर भी करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों की विस्तृत एवं व्यावहारिक व्याख्या की गई है। पहला, गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे पहले जिस विषय पर बल दिया, वह है कर्म। गीता के अनुसार, कर्म ही जीवन का आधार है। हर व्यक्ति को अपने कत्र्तव्यों का पालन करना चाहिए, क्योंकि कार्य करने से ही जीवन में उद्देश्य और दिशा मिलती है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि कर्म का पालन बिना किसी अपेक्षा के करना चाहिए, अर्थात् बिना फल की इच्छा के। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का अर्थ है कि मनुष्य को केवल कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल पर उसका अधिकार नहीं है। यह शांति की अवस्था प्राप्त करने का मार्ग है। कर्म के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर की वृत्तियों को नियंत्रित कर सकता है, आत्मा के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ सकता है और सांसारिक कत्र्तव्यों का पालन करने में सक्षम बनता है। दूसरा, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में भक्ति के महत्व को भी अत्यंत महत्वपूर्ण बताया है। भक्ति का अर्थ केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार आत्मसमर्पण और प्रेम की भावना विकसित करने तक है। भक्ति में व्यक्ति अपने दिल से ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण महसूस करता है। गीता के अनुसार, भक्ति से ही व्यक्ति अपने अस्तित्व के उद्देश्य को समझ सकता है और वह ईश्वर से जुड़ता है। ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ का अर्थ है कि व्यक्ति को सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों को त्यागकर केवल भगवान की शरण में जाना चाहिए। यही आंतरिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति की प्रक्रिया है। भक्ति का मार्ग व्यक्ति को जीवन के दुखों से उबारने और परमात्मा के साथ एकरूपता की अनुभूति देने में मदद करता है। तीसरा, ज्ञान वह मार्ग है जिसके द्वारा व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के सत्य स्वरूप को समझ सकता है।
गीता में ज्ञान को एक उच्चतम स्तर की साक्षात्कार प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि बिना ज्ञान के कर्म और भक्ति अधूरे हैं। ज्ञान से व्यक्ति यह समझता है कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, उसका संबंध परमात्मा से कैसे है और संसार की वस्तुएं अस्थायी और मिथ्या हैं। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ के अनुसार ज्ञान से ही व्यक्ति के जीवन की वास्तविकता का उद्घाटन होता है। जब व्यक्ति ज्ञान को सही दृष्टिकोण से प्राप्त करता है, तो वह न केवल अपने कत्र्तव्यों का सही तरीके से पालन करता है, बल्कि उसकी मानसिक स्थिति भी संतुलित रहती है। ज्ञान से ही नकारात्मक भावनाओं का नाश होता है और आत्मा के प्रति सच्ची समझ उत्पन्न होती है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों मार्गों को एक साथ समन्वित एवं संतुलित अवस्था में अपनाने की बात कही है। ये तीनों मार्ग एक-दूसरे के पूरक हैं और मिलकर व्यक्ति को जीवन के उच्चतम उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करते हैं। कर्म बिना भक्ति और ज्ञान के केवल सांसारिक कार्यों में परिणत हो सकता है। जब कर्म भक्ति और ज्ञान के साथ होता है, तो वह ईश्वर की सेवा में बदल जाता है और व्यक्ति का उद्देश्य भी अधिक शुद्ध हो जाता है। भक्ति में जब व्यक्ति कर्म करता है, तो वह केवल व्यक्तिगत लाभ की इच्छा से मुक्त होता है। इस प्रकार, कर्म ईश्वर की सेवा के रूप में किया जाता है और यही कर्म उसकी आध्यात्मिक उन्नति का कारण बनता है। ज्ञान बिना भक्ति और कर्म के व्यक्ति आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारा वास्तविक उद्देश्य क्या है और कर्म तथा भक्ति से ही उस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। जब इन तीनों मार्गों का समन्वय होता है, तो व्यक्ति के जीवन में संतुलन और शांति का आभास होता है। यह समन्वय न केवल आत्मिक उन्नति को सुनिश्चित करता है, बल्कि सामाजिक और मानसिक समृद्धि की ओर भी मार्गदर्शन करता है। श्रीमद्भगवद्गीता का यह त्रिविध मार्ग आज के समय में भी हमें सफलता, शांति और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।
-शिवानी ठाकुर
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