वीर बाल दिवस और गुरु पुत्रों का बलिदान

माता गुजरी ने परम संतुष्टि की सांस ली और वे अनंत समाधि में चली गईं। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तब तक तो प्राण पखेरू उस अनंत में ही विलीन हो चुके थे…
पौष मास था। दशम गुरु गोबिंद सिंह जी को आनंदपुर का किला छोडऩा पड़ा था। मुगलों ने लम्बे अरसे से घेराबन्दी की हुई थी। सरसा नदी पार करते हुए गुरु जी का परिवार भी बिछुड़ गया और बहुत से साथी भी मारे गए। माता गुजरी जी और दो सुपुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह रात के अंधेरे में अलग हो गए। गुरुजी अपने दो सुपुत्रों व चालीस साथियों सहित चमकौर की एक कच्ची गढ़ी तक पहुंच गए। भयंकर लड़ाई में उनके दोनों सुपुत्र अजीत सिंह व जुझार सिंह रणभूमि में लड़ते हुए अमरता को प्राप्त कर गए। उधर सरहिन्द में इसी अध्याय का दूसरा हिस्सा लिखा जा रहा था। सरहिन्द के सूबेदार ने गुरुजी के दूसरे दोनों सुपुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को उनकी दादी मां गुजरी जी समेत दस पौष (24 दिसम्बर 1705) को बन्दी बना लिया था। जोरावर सिंह 9 साल के थे और फतेह सिंह 7 साल के थे। वहां उन्हें उनकी दादी मां समेत एक बुर्ज में रखा गया। नगर में इसे ठंडा बुर्ज कहा जाता था। इसकी रचना इस प्रकार की गई थी ताकि शीत की सर्द हवाएं बिना किसी अवरोध के इसके अन्दर पहुुंच सकें। शरीर को चीरती और सांस को भी जमा देने वाली सर्द हवा। चारों तरफ से हवा के लिए कोई अवरोध नहीं। दादी मां गुजरी दोनों बच्चों को सीने से लगा कर उन्हें ठंड से बचाने का असफल प्रयास कर रही थीं। लेकिन जो बुर्ज ग्रीष्म ऋतु में भी ठंडा रहता हो, शरद ऋतु में वह कितना कहर ढा रहा होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मुगलों ने सोचा यदि ये दोनों बालक इस्लाम पंथ को अपना कर मुसलमान बन जाते हैं तो विदेशी सत्ता के प्रतिरोध का प्रथम गुरु नानक देव जी से चला यह अभियान स्वयंमेव समाप्त हो जाएगा।
सरहिन्द के सूबेदार को लगता था कि इन छोटे बच्चों को मतान्तरित करना तो ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। उसके लिए विविध उपाय किए जाने लगे। दोनों बालक जब तक मुगल सत्ता के आगे सिर नहीं झुकाते तब तक उनका भोजन और पानी रोक दिया जाए। उनको भोजन देने की कोशिश जो भी करेगा उसे भी दंडित किया जाएगा। दूसरे दिन दोनों सिंह शावकों को कचहरी में काजी के सामने पेश किया गया। इन सैयद काजियों ने गुरु परम्परा का कभी भी पीछा नहीं छोड़ा था। प्रथम गुरु श्री नानक देव जी से भी काजी ने पूछा था, तुमने मस्जिद में आकर नमाज क्यों नहीं पढ़ी? ऐसे ही किसी काजी ने पंचम गुरु श्री अर्जुन देव जी को अमानुषिक सजा देने की तजवीजें निकाली थीं। एक काजी दिल्ली के चान्दनी चौक में नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी का सिर कलम कर देने का आदेश दे रहा था। और अब एक काजी दशम गुरु के बच्चों को इस्लामी न्याय समझा रहा था। वह न्याय था प्राण रक्षा के लिए अपनी परम्पराएं छोड़ दो। विरासत त्याग दो और पुरुखों को नकार दो। अपना मजहब बदल लो। एक बालक नौ साल का था और दूसरा सात साल का था। माता-पिता बिछुड़ गए थे। कहां हैं, कुछ पता नहीं था। ठंडे बुर्ज में दादी मां की गोद में छिप कर रात काटी थी। लेकिन सरहिन्द के सूबेदार को आश्चर्य हुआ, इस सबके वाबजूद गुरु पुत्रों ने अपना परम्परागत मजहब त्यागने से इंकार कर दिया था। दूसरे दिन काजी ने मुगल सत्ता का न्याय सुना दिया। मृत्युदंड। अपराध? अपना मजहब बदलने से इंकार। मुसलमान बनने से इंकार। काजी न्याय था मृत्यु दंड। लेकिन मृत्युदंड कैसे क्रियान्वित किया जाएगा? अरब के न्याय में इसका भी प्रावधान था। जिंदा ही दीवार में चिनवा कर। दोनों बालकों को खड़ा कर उनके इर्द-गिर्द दीवार चुनना शुरू हो गया। एक-एक ईंट लगती जा रही थी और दीवार ऊंची उठती जा रही थी। इस पर पंजाब में एक कथा प्रचलित है। यह कथा श्रुति परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। कथा इस प्रकार है : उम्र के लिहाज से जोरावर सिंह बड़े थे और फतेह सिंह छोटे थे। जाहिर है फतेह सिंह का कद छोटा था और जोरावर सिंह का कद तुलना के हिसाब बड़ा था। दीवार ऊंची होती जा रही थी। लेकिन तभी फतेह सिंह को लगा कि जोरावर सिंह की आंखों में आंसू हैं। फतेह सिंह ने आश्चर्य से पूछा, भाई रो रहे हो? क्या मृत्यु से भय लग रहा है? जोरावर सिंह ने शांत भाव से कहा, नहीं फतेह सिंह, मैं सोच रहा था, मैं संसार में तुमसे पहले आया था। लेकिन अब जब देश और धर्म की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने का समय आया तो यह पुण्य अवसर तुम्हें मुझसे पहले मिल रहा है।
दीवार ऊंची होती जा रही थी। यह निश्चित था कि दीवार पहले फतेह सिंह को ही अपने भीतर लील लेगी। जोरावर सिंह की बारी बाद में ही आएगी। दीवार ऊंची होती गई। अब एक-दो ईंटों के बाद फतेह सिंह जीवित ही दीवार में समा जाएंगे और एक-दो और ईंटों के बाद जोरावर सिंह भी इसी दीवार में छिप जाएंगे। नवाब ने एक बार फिर प्रयास किया। मौत एक ईंट दूर हो तो कौन विचलित नहीं हो जाएगा। यही सोच कर वह एक बार फिर गुरु पुत्रों से संबोधित हुआ, ‘अब अवसर नि:शेष होता जा रहा है। अभी भी काल के प्रहार से बच सकते हो। हमारा मजहब स्वीकार कर लो।’ गुरु पुत्रों ने जिस प्रकार आग्नेय नेत्रों से उसकी ओर देखा, उससे सचमुच नवाब दहल गया। इन बालकों में मृत्यु को भी चुनौती देने वाला यह अप्रतिम साहस कहां से आता है। शायद न तो नवाब जानता था और न ही सैयद काजी जानता था, यह मिट्टी ही यह साहस देती है। गुरु पुत्र इस मिट्टी की रक्षा के लिए ही लड़ रहे थे। यह पावन भूमि ही उनका धर्म था। दीवार पूरी हो गई और दोनों गुरु पुत्र आंखों से ओझल हो गए। नवाब और उसके दरबारी, सैयद काजी कुछ देर प्रतीक्षा करते रहे। गुरु पुत्रों की मृत्यु की प्रतीक्षा। उधर सरहिन्द के लोग सांस रोक कर खड़े थे। इस अमानवीय राक्षसी राज्य का अन्त नजदीक है। यह दीवार उसी अन्त की घोषणा कर रही थी। उस दिन 12 पौष था। माता गुजरी जी ने अपने पौत्रों का शरीर त्याग देखा। अपने पति तेग बहादुर जी का साहसिक बलिदान देखा। अपने पुत्र गोबिंद सिंह जी बिखर गए परिवार के साथ, सरसा नदी पार करते, देखा। सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। ठंडे बुर्ज में अमानवीय अत्याचार सहे। अपने दो पोत्रौं के साहस की पराकाष्ठा देखी।
दीवारों में चिना जाना स्वीकार किया, लेकिन पूर्वजों की आस्थाएं नहीं छोड़ीं। विदेशी क्रूर शासकों की आंख में आंख डाल उनको पराजित कर दिया। माता गुजरी के दोनों पौत्रों ने अपना बलिदान देकर नवाब को हरा दिया। माता गुजरी ने परम संतुष्टि की सांस ली और वे अनन्त समाधि में चली गईं। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तब तक तो प्राण पखेरू उस अनन्त में ही विलीन हो चुके थे। सरहिन्द के लोग तो कई दिन तक रात्रि को चारपाई पर सोए तक नहीं। मन ही मन कहते- गुरु पुत्र सर्द रातों में ठंडे बुर्ज में जमीन पर सोते रहे और हम चारपाई पर कैसे सो सकते हैं? उसके बाद तो गुरु पुत्रों को श्रद्धांजलि देने का प्रतीक बन गया, पौष मास में चारपाई की जगह जमीन पर सोना। आज भी देश के कोने-कोने में बहुत से लोग पौष मास में चारपाई पर नहीं सोते, गुरु पुत्रों के अप्रतिम बलिदान को नमन व स्मरण करते हुए। कहा जाता है- आज भी सरहिन्द के लोग पौष मास में चारपाई पर नहीं सोते। जमीन पर सोते हैं। यह कल्पना करते हुए कि उन किशोर बालकों ने सर्दी की वे रातें ठंडे बुर्ज में सर्द फर्श पर कैसे काटी होंगी? गुरु गोबिंद सिंह जी को बाद में इस सबका पता चला। जब वह अपने सभी साथियों के साथ बैठे चिंतन-मनन कर रहे थे, तो माता साहिब कौर जी ने चारों पुत्रों के बारे में पूछा। गुरुजी ने सामने बैठे लोगों की ओर संकेत करते हुए उत्तर दिया-
‘इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार।
चार मुए तो क्या हुआ, जीवत कई हजार।।’
पूरा राष्ट्र दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के पुत्रों के बलिदान और पराक्रम को वीर बाल दिवस के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। सभी गुरुओं और गुरु पुत्रों को एक बार फिर नमन। यह कहानी हमेशा अमिट रहेगी।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल:Ñkuldeepagnihotri@gmail.com
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