संविधान में परिवर्तन के लिए क्या युवा तैयार हैं?

जहां तक युवा महत्त्वाकांक्षा का सवाल है, पूछा जा सकता है कि रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार क्यों न बनाया जाए…
हाल का राजनीतिक-विकासात्मक, सृजनात्मक घटनाक्रम और उनसे उपजी विश्लेषणात्मक सोच यह प्रश्न भारत के युवाओं के पूछ रही है। पहली राजनीतिक घटना यह है कि कांग्रेस, मुख्य विपक्षी दल, एनडीए सरकार पर आरोप लगा रही है कि वह संविधान में बदलाव करने जा रही है। वह भारतीय नागरिकों को इस संबंध में सचेत भी कर रही है। दूसरी घटना के रूप में हम प्रखर चिंतक और ‘दिव्य हिमाचल’ के सीएमडी भानु धमीजा की पुस्तक ‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली : कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ को ले सकते हैं। यह किताब भारत में बेहतर लोकतंत्र की स्थापना के लिए अमरीका की तरह की अध्यक्षात्मक सरकार की पैरवी करती है। तीसरी बात यह है कि भारतीय संविधान में कई संशोधनों के बावजूद अब तक गुणात्मक संशोधन नहीं हुए हैं। इसमें नागरिक महत्त्वाकांक्षाओं, विशेषकर युवा महत्त्वाकांक्षा, को ध्यान में रखते हुए गुणात्मक संशोधनों की जरूरत है। राजनीतिक घटनाक्रम को याद करें, तो कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल बार-बार आरोप लगा रहे हैं कि मोदी संविधान बदलने जा रहे हैं।
इस पर सरकार पूछ रही है कि संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द लिखाने वाले कौन लोग हैं, जबकि मूल संविधान में यह शब्द नहीं है। सरकार का आरोप है कि संविधान बदलने का कार्य तो कांग्रेस ने किया है। अब सवाल है कि संविधान में बदलाव होना चाहिए या नहीं? अमरीकी व ब्रिटिश संविधानों में बदलावों के नियमों को देखें, तो पहले वाला कठोर संविधान है, जबकि दूसरे वाला लचीला संविधान है। भावार्थ यह है कि अमरीका में मुश्किल से, जबकि ब्रिटेन में सरलता से संविधान संशोधन हो सकते हैं। जहां तक भारतीय संविधान की बात है, तो इसमें कुछ प्रावधान आसानी से बदले जा सकते हैं, किंतु कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिन्हें बदलने के लिए विशेष बहुमत की जरूरत होती है। यह भी ध्यातव्य है कि 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार संविधान में बदलाव तो हो सकता है, किंतु मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है। तब से लेकर संविधान संशोधनों को लेकर यही अवधारणा बनी हुई है। किंतु विशेषज्ञों का मानना है कि विशेष बहुमत और रणनीतिक-कूटनीतिक प्रयासों के जरिए सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को बदलकर मूल ढांचे में भी बदलाव किया जा सकता है। हालांकि इसके लिए दो संविधान संशोधनों की जरूरत पड़ेगी। पहले संशोधन के जरिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटा जा सकता है, और दूसरे संशोधन के जरिए मूल ढांचे में बदलाव किया जा सकता है। इसके अलावा नागरिक और युवा महत्त्वाकांक्षाएं तो बदलाव की पैरवी करती ही हैं। मेरा मानना है कि संविधान में संशोधन का अधिकार नई पीढ़ी को होना ही चाहिए, ताकि वह अपने समयानुकूल प्रासंगिक संशोधन कर सके। लेकिन संशोधन किन धाराओं में हो, कितनी सीमा तक हो, यह चिंतन का विषय है। यहां सवाल उठता है कि युवा पीढ़ी के मन में इस संबंध में क्या कोई बहस चल रही है? क्या वह भारतीय संविधान में संशोधन के लिए तैयार हो रही है? भारतीय संविधान में संशोधन करके ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द लिखने के संबंध में विश्लेषकों का सार है कि यह तत्कालीन सरकार, जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त था, का तत्कालीन परिस्थितियों में लिया गया फैसला था, अत: उचित माना जाना चाहिए। इसे सभी को स्वीकार करना चाहिए।
लेकिन अब सवाल यह है कि अगर यही तर्क लेकर एनडीए सरकार, जिसे भी पूर्ण बहुमत हासिल है, संविधान में संशोधन करती है, तो क्या इस संबंध में भी यही तर्क दिया जाएगा, अथवा कुछ और? यह चिंतन का विषय है। जहां तक युवा महत्त्वाकांक्षाओं का सवाल है, तो यह पूछा जा सकता है कि रोजगार के अधिकार, जो अभी केवल निर्देशक सिद्धांतों में शामिल है, को मौलिक अधिकार क्यों न बनाया जाए? इसके लिए भी तो संविधान में संशोधन की जरूरत पड़ेगी। संविधान की कुछ पुरातन और अप्रासंगिक हो चुकी धाराओं को भी बदलने की जरूरत महसूस की जा रही है। कुछ लोग पूरी तरह संविधान को बदलने की भी पैरवी कर रहे हैं। क्या प्रासंगिक और सीमित संशोधन ही हों, या संविधान को पूरी तरह बदल दिया जाए, यह चिंतन का विषय है। यह बात भी जाहिर है कि संविधान संशोधन का विषय मूलत: युवा पीढ़ी से जुड़ा है, अत: उसे ही कोई ठोस फैसला करना है। क्या भारतीय युवा पीढ़ी इसके लिए तैयार हो रही है? अगर वह तैयार हो रही है, तो क्या वह प्रासंगिक और सीमित संशोधन ही करेगी, अथवा पूरा संविधान बदलने की इजाजत देगी? इन मसलों पर चिंतन भारत के भविष्य के लिए ठीक रहेगा। मौलिक अधिकारों, मौलिक कत्र्तव्यों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धातों पर विचार करते हुए, नए युग के अनुरूप संशोधन किए जाने चाहिएं। अभिभावकों का मौलिक कत्र्तव्य है कि वे अपने बच्चों को शिक्षा दिलाएं। ऐसे ही अन्य कई मौलिक कत्र्तव्य भी हैं। कुछ मौलिक कत्र्तव्यों को न्यायसंगत बनाने की जरूरत है। रोजगार के अधिकार को निर्देशक सिद्धांतों की सूची से निकाल कर न केवल मौलिक अधिकार बना दिया जाना चाहिए, बल्कि इसके लिए माकूल बजट की व्यवस्था सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। सरकार की पहली दस प्राथमिकताएं तय करने के लिए नवीन चिंतन किया जाना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 39-बी और 39-सी में लिखा है कि सरकार ऐसी व्यवस्था करेगी कि देश के आर्थिक संसाधनों का न्यायोचित बंटवारा हो तथा भौतिक संपदा पर कुछ ही लोगों का एकाधिपत्य न हो।
इन अनुच्छेदों को अनुच्छेद 14 व 19 में दिए गए मौलिक अधिकारों पर अधिमान दिया गया है। नागरिकों के आर्थिक अधिकारों को पुष्ट करने वाले सभी निर्देशक सिद्धांतों को भी न्यायसंगत बनाया जाना चाहिए, क्योंकि आर्थिक अधिकारों के बिना सच्चे लोकतंत्र की स्थापना महज एक कल्पना है। प्रो. के. टी. शाह ने तो कहा भी है कि निर्देशक सिद्धांत एक ऐसा चैक है जिसे बैंक अपनी सुविधा के अनुसार जारी करता है। जिन निर्देशक सिद्धांतों को न्यायालय के माध्यम से लागू ही नहीं किया जा सके, उन्हें संविधान में मात्र लिख देने से क्या होगा? यह भी सच्चाई है कि भारत में राजनीतिक लोकतंत्र की कुछ सीमा तक स्थापना हो चुकी है, लेकिन आर्थिक लोकतंत्र की अभी स्थापना शेष है। बहरहाल, भारत की युवा पीढ़ी को संविधान में व्यापक संशोधन के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए।
राजेंद्र ठाकुर
’दिव्य हिमाचल’ से संबद्ध
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