पूर्ण मनुष्य बनो

ओशो
एक मनुष्य को बस मनुष्य होना चाहिए, एक मनुष्य को बस मानवीय होना चाहिए, समग्र, अखंड और उस अखंडता से एक नए किस्म के स्वास्थ्य का उदय होगा। पूरब अंतर्मुखी है, पश्चिम बहिर्मुखी है। मनुष्य विभाजित है, मन विखंडित है। इसी कारण सारे महान गुरु पूरब से आते हैं और सारे महान वैज्ञानिक पश्चिम से आते हैं। पश्चिम ने विज्ञान विकसित किया है और अंदर की आत्मा को पूरी तरह से भुला दिया है, वह पदार्थ की चिंता लेता रहा, लेकिन अंदर की आत्मपरकता से अनजान बना रहा। सारा ध्यान पदार्थ पर है। इसलिए सारे महान वैज्ञानिक पश्चिम में पैदा हुए हैं। पूरब अंतरात्मा की बहुत अधिक चिंता लेता रहा और वस्तुनिष्ठता को, पदार्थ को, संसार को भूल गया। इससे महान धार्मिक गुरु विकसित हुए, लेकिन यह शुभ स्थिति नहीं है, ऐसा नहीं होना चाहिए। मनुष्य को अखंड होना चाहिए। अब मनुष्य को एक तरफा नहीं होने देना चाहिए। मनुष्य एक तरलता हो, न तो बहिर्मुखी और न ही अंतर्मुखी। मनुष्य में दोनों एक साथ होने की सामथ्र्य होनी चाहिए। आंतरिक और बाह्य, अगर संतुलित हैं, तो यह महानतम हर्ष का अनुभव देता है। ऐसा व्यक्ति जो कि न तो अंदर की ओर बहुत अधिक झुक रहा है, न ही बहुत अधिक बाहर की ओर, एक संतुलित व्यक्ति है। वह एक साथ वैज्ञानिक और आध्यात्मिक होगा। ऐसा ही कुछ होगा, ऐसा ही कुछ होने वाला है। हम इसके लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। मैं एक ऐसा मनुष्य देखना पसंद करूंगा, जो न तो पूर्वीय हो और न ही पश्चिमी, क्योंकि पश्चिमी के विरोध में पूर्वीय होना कुरूप है। पूर्वीय के विरोध में पश्चिमी होना भी कुरूप है। सारी पृथ्वी हमारी है और हम सारी पृथ्वी के हैं। पूरब ने दुख उठाया, पश्चिम ने दुख उठाया।
पूरब ने दुख उठाया, तुम इसे चारों ओर देख सकते हो, गरीबी, भुखमरी। पश्चिम ने दुख उठाया, तुम पश्चिमी मन के अंदर देख सकते हो, तनाव, चिंता, पीड़ा। पश्चिम आंतरिक रूप से बहुत गरीब है, पूरब बाहरी रूप से बहुत गरीब है। गरीबी बुरी है। फिर चाहे वह बाहर की हो या भीतर की इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, गरीबी को नहीं आने देना है। मनुष्य को समृद्ध होना चाहिए, आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से। मनुष्य को सब आयामों में समृद्ध होना चाहिए। जरा उस मनुष्य की कल्पना करो जो अल्बर्ट आइंस्टीन और गौतम बुद्ध दोनों है। इस संभावना पर विचार करो, यह संभव है। वास्तव में अगर अल्बर्ट आइंस्टीन कुछ और जिया होता, तो वह एक रहस्यवादी बन गया होता। उसने अंदर के विषय में सोचना आरंभ कर दिया था, वह अंदर के रहस्य के बारे में रुचि ले रहा था। तुम बाहरी रहस्य में कितनी देर रुचि ले सकते हो?
अगर तुम वास्तव में रहस्य में रुचि रखते हो, तो देर सबेर तुम आंतरिकता की ओर भी आओगे।
मेरी अवधारणा एक ऐसे जगत की है जो न तो पूर्वीय है और न ही पश्चिमी, न आंतरिक और न बाह्य, न अंतर्मुखी न बहिर्मुखी, जो संतुलित है, जो अखंड है। लेकिन अतीत में ऐसा नहीं था। इसलिए तुम्हारा प्रश्न प्रासंगिक है। तुम पूछते हो,सारे महान गुरु पूर्व से क्यों आते है? क्योंकि पूर्व बाह्य के विरोध में आंतरिकता से ग्रसित रहा है। स्वाभाविक है, जब तुम सदियों से आंतरिकता से ग्रसित हो, तुम एक बुद्ध, एक नागार्जुन, एक शंकर, एक कबीर पैदा करोगे। यह स्वाभाविक है। अगर तुम आंतरिकता के विरोध में बाह्य से ग्रसित हो, तुम एक अल्बर्ट आइंस्टीन, एक एडिंगटन, एक एडिसन पैदा करोगे, यह स्वाभाविक है। लेकिन यह मनुष्य की समग्रता के लिए शुभ नहीं है। कुछ कमी है। मनुष्य जिसका अंतर विकसित है लेकिन जो बाह्य रूप से विकसित नहीं है, बाहर बचकाना रह जाता है, बाहर बेवकूफ बना रहता है। तुम्हें मेरा यह संदेश है, इन गोलार्धों को छोड़ो, पूरब और पश्चिम के और इन आंतरिक और बाह्य के गोलार्धों को छोड़ो, तरल बनो।
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