निर्मला पंथ : सप्तसिंधु में नवजागरण यात्रा
‘आज ही सारी तैयारी कर ब्रह्म मुहूर्त में यात्रा करें। घबराना मत, गुरु सदा सर्वदा आपके साथ ही हैं। जो विद्या साधारण जन बारह वर्ष में प्राप्त करते हैं, वही विद्या आप बारह मास में ही प्राप्त कर लोगे। हमारे इस वरदान से आप देश के धुरंधर विद्वान बनेंगे। स्वयं विद्या प्राप्त करने के बाद इसका पंथ में विस्तार करना। जिस प्रकार की आपकी निर्मल बुद्धि है, उसी प्रकार से निर्मला बन कर रहना।’ लेकिन गुरु जी जानते थे कि ज्ञान साधना कष्टसाध्य है। इसलिए उन्होंने इन ज्ञान साधकों को खबरदार भी किया कि ज्ञान का मार्ग कष्टसाध्य भी है। वहां मौसम भी आपके अनुकूल नहीं हो सकता। इन सभी बाधाओं को पार करते हुए विजयी होकर आओ। गुरु गोबिंद सिंह जी के इन पांचों शिष्यों ने चौदह साल तक ज्ञान-विज्ञान का गहरा अध्ययन किया और संस्कृत भाषा, दर्शन शास्त्र और इतिहास के पंडित बने। काशी जी में ये पांचों शिष्य जहां रहते थे, वह आज भी चेतन मठ कहलाता है। ज्ञान की साधना से ये सभी आचरण व व्यवहार में गंगाजल की तरह निर्मल हो गए थे। इसलिए वे निर्मला कहलाए…
बिना ज्ञान साधना के सांस्कृतिक पुनर्जागरण संभव नहीं है। समाज में शौर्य और तेज की ज्वाला प्रचलित करनी होगी तो उसके लिए ज्ञान का आधार तो चाहिए ही। ज्ञान बल की आधारभूमि पर शौर्य बल स्थित हो तभी धर्म की स्थापना हो सकती है। दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह जी ने इस कार्य को और विस्तार दिया। उन्हें ज्ञान और शौर्य के सामंजस्य का रास्ता तलाशना था। यही रास्ता भारत का मुक्ति मार्ग बन सकता था। गुरु गोबिंद सिंह जी अपने अनुभव से जानते थे कि संस्कृत का अध्ययन किए बिना उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती थी। उनके इसी प्रयास में से निर्मला पंथ ने आकार ग्रहण किया। इसकी कहानी भी रुचिकर है और आज भी प्रासंगिक है। निर्मला पंथ के लगभग सभी ग्रंथों में इसका जिक्र थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ मिलता है। यह घटना 1686 की है। गुरु जी का निवास उन दिनों पौंटा साहिब में था। गुरुजी ने निर्णय किया कि उनके शिष्यों को संस्कृत का ज्ञान होना चाहिए। तभी ज्ञान की सनातन परंपरा का पुन: प्रवाह इस क्षेत्र में हो सकेगा, जो विदेशी आधिपत्य से अवरुद्ध हो गया है। गुरुजी ने स्वयं कश्मीर के पंडित कृपा राम से संस्कृत भाषा का गहन ज्ञान अर्जित किया था। वे स्वयं संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। संस्कृत भाषा के विद्वान श्री रघुनाथ से प्रार्थना की कि वे उनके शिष्यों को संस्कृत का अध्ययन कराना शुरू कर दें ताकि वे कालांतर में जन भाषा में सनातन ज्ञान परंपरा का प्रसार कर सकें। लेकिन यहां एक बाधा आ रही थी। रघुनाथ ने शिष्यों की बिरादरी (समुदाय) का प्रश्न खड़ा कर दिया। रघुनाथ को लगता था कि गोबिंद सिंह जी जिन शिष्यों को संस्कृत पढ़ाने के लिए कह रहे हैं, उनकी बिरादरियां (समुदाय) सामाजिक दृष्टि से छोटी हैं। रघुनाथ के निर्णय के बाद गुरु जी के पास दो विकल्प थे।
पहला विकल्प तो यह था कि वे अपने प्रयास को ही छोड़ देते। दूसरा विकल्प यह था कि वे उस समय की तथाकथित ऊंची बिरादरी के शिष्यों को रघुनाथ के पास भेज देते। लेकिन उन्होंने इन दोनों विकल्पों में से कोई विकल्प नहीं चुना। गुरुजी समझ गए थे कि जिन लोगों को संस्कृत ज्ञान देने से इंकार किया जा रहा था, उन्हीं को संस्कृत ज्ञान दिया जाना सर्वाधिक आवश्यक है, क्योंकि सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे विदेशी शासकों ने इन्हीं को सर्वाधिक प्रताडि़त किया था। एटीएम, अर्थात अरब-तुर्क-मुगल के हमलों ने भारत में यह एक नई बीमारी शुरू कर दी थी। जो बिरादरियां हमलावरों से लड़ती रहीं, उन बिरादरियों को जीतने पर हमलावरों ने शिखरों से गिरा दिया। वे बिरादरियां छोटी कही जाने लगीं। विदेशी शासकों ने उन्हें ज्ञान तो दूर की बात है, आजीविका के साधनों से भी वंचित कर दिया। इस कारण से ज्ञान के मामले में वे हाशिए पर आ गई थीं। यही कारण था कि गुरुजी रघुनाथ के इंकार से निराश नहीं हुए। वे जानते थे कि काशी अभी भी ज्ञान प्रदान करने में किसी भी बिरादरी को ऊंचा या नीचा नहीं मानती। इसलिए उन्होंने इन्हीं पांच शिष्यों श्री बीर सिंह जी, श्री गंडा सिंह जी, श्री करम सिंह जी, श्री राम सिंह जी और श्री सैना सिंह जी को संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के लिए काशी चले जाने के लिए कहा, जिसे आज भी ‘तीन लोक से न्यारी’ कहा जाता है। पंद्रहवीं शताब्दी में इसी काशी में श्री रविदास जी ने ज्ञान की निर्मल धारा प्रवाहित की थी और कबीर दास भारतीय समाज में व्याप्त हो गई जड़ता को चुनौती दे रहे थे। इसी काशी में बैठ कर एक दूसरे पंडित गोस्वामी तुलसीदास ने सोहलवीं शताब्दी में अवधी में रामकथा लिख कर ‘सर्वजन सुलभ ज्ञान’ अभियान चलाया था।
अब सत्रहवीं शताब्दी के अंत में गोबिंद सिंह जी के पांच शिष्य वहीं से इस ज्ञान गंगा को सप्त सिंधु की ओर प्रवाहित करने की भागीरथी साधना में जुट गए थे। गुरु जी ने उन्हें भगवा वस्त्र देकर कहा, ‘आपको संस्कृत पढऩे के लिए काशी जी भेज रहे हैं। काषाय वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में वेद शास्त्रों की संस्कृत में सारी विद्या का अध्ययन करो। आज ही सारी तैयारी कर ब्रह्म मुहूर्त में यात्रा करें। घबराना मत गुरु सदा सर्वदा आपके साथ ही हैं। जो विद्या साधारण जन बारह वर्ष में प्राप्त करते हैं, वही विद्या आप बारह मास में ही प्राप्त कर लोगे। हमारे इस वरदान से आप देश के धुरंधर विद्वान बनेंगे। स्वयं विद्या प्राप्त करने के बाद इसका पंथ में विस्तार करना। जिस प्रकार की आपकी निर्मल बुद्धि है, उसी प्रकार से निर्मला बन कर रहना।’ लेकिन गुरु जी जानते थे कि ज्ञान साधना कष्टसाध्य है। इसलिए उन्होंने इन ज्ञान साधकों को खबरदार भी किया कि ज्ञान का मार्ग कष्टसाध्य भी है। वहां मौसम भी आपके अनुकूल नहीं हो सकता। इन सभी बाधाओं को पार करते हुए विजयी होकर आओ। गुरु गोबिंद सिंह जी के इन पांचों शिष्यों ने चौदह साल तक ज्ञान-विज्ञान का गहरा अध्ययन किया और संस्कृत भाषा, दर्शन शास्त्र और इतिहास के पंडित बने। काशी जी में ये पांचों शिष्य जहां रहते थे, वह आज भी चेतन मठ कहलाता है। ज्ञान की साधना से ये सभी आचरण व व्यवहार में गंगाजल की तरह निर्मल हो गए थे। इसलिए वे निर्मला कहलाए। गुरु जी द्वारा स्थापित इसी निर्मला पंथ ने गुरुवाणी व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सिख गुरुओं द्वारा दिए गए बलिदानों को अगर याद करें, तो सबसे बड़ा बलिदान गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही दिया। दो गुरु पुत्र मुगलों से लड़ाई करते हुए शहीद हो गए, तो दो अन्य गुरु पुत्र दीवारों में जिंदा चिनवा दिए गए। भला इस बलिदान को कौन भूल सकता है? भारत के नवनिर्माण के लिए शहादत की यह गाथा मुगल काल में लिखी गई। भारतीय संस्कृति को त्यागने और मुस्लिम धर्म अपनाने से इंकार करने पर उन्हें यह बलिदान देना पड़ा। इससे पहले गुरु तेग बहादुर जी भी इसी प्रश्न पर अपनी शहादत दे चुके थे। राष्ट्र दोनों गुरुओं के बलिदानों को नमन करता है। हिंदू धर्म और संस्कृति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए ये सभी बलिदान दिए गए। शौर्य की यह गाथा लिखते वक्त गुरुओं के चेहरों पर किसी प्रकार की कोई आशंका नहीं थी। उनका लक्ष्य एकदम स्पष्ट था। अपनी संस्कृति और अपने धर्म के लिए लडऩा है। किसी विदेशी के आगे झुकने का कोई मतलब नहीं था, चाहे इसके लिए अपने प्राण ही क्यों न न्योछावर करने पड़ें।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com
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