अफगानिस्तान में पश्तूनावली की चेतना

यही मूल अंतर है जिसे पाकिस्तान के लोग तो शायद समझ रहे हैं, लेकिन अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण वहां के हुक्मरान नहीं समझ रहे। पाकिस्तान के हुक्मरान अपने देश के लोगों को इस्लाम के नाम पर उनकी सनातन सांस्कृतिक चेतना से तोडऩा चाहते हैं। पश्तून इसके लिए तैयार नहीं हैं। न तो डूरंड रेखा के इस ओर के पश्तून और न ही उस ओर के पश्तून। यही कारण है कि दशकों तक तालिबान की मदद के बावजूद आज फिर पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तालिबान सरकार आमने-सामने हैं और और भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी तालिबान सरकार के विदेश मंत्री से सार्थक बातचीत कर रहे हैं। पाकिस्तान को पश्तूनावली की सांस्कृतिक चेतना को पहचानना होगा। यही कारण है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पश्तून अपने आपको पाकिस्तान की बजाय भारत के ज्यादा नजदीक समझता है…

अफगानिस्तान की सरकार को किसी भी देश की सरकार ने मान्यता नहीं दी है। चीन सरकार पिछले कुछ अरसे से जरूर उससे पींघे बढ़ा रही थी। पाकिस्तान पिछले लंबे अरसे से अफगानिस्तान को अपने इलाके का पिछवाड़ा मान कर उसके साथ व्यवहार कर रहा था। उसका प्रमुख कारण अफगानिस्तान की भू-राजनीतिक स्थिति कही जा सकती है। अफगानिस्तान पर रूस के हमले ने पाकिस्तान की स्थिति प्रासंगिक बना दी थी। अमेरिका को हर हालत में मध्य एशिया के इस अंतिम देश, जो अभी तक रूस की छत्रछाया में आने से बचा हुआ था, उसको रूस की इस प्रेतछाया से मुक्त करना था। उसे इसके लिए पाकिस्तान का साथ चाहिए था। उसके लिए अमेरिका ने पैसा और हथियार दिया और पाकिस्तान ने पश्तूनों (पठानों) को नए हथियारों का प्रशिक्षण दिया। तालिबान के नाम से पश्तून योद्धाओं की एक नई पौध तैयार हो गई। इसकी तैयारी और प्रशिक्षण में इस्लाम को केन्द्र बनाया गया। यानी रूस के हमले से अफगानिस्तान खतरे में पड गया है। किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि अफगानिस्तान में इस्लाम की रक्षा के लिए आखिर अमेरिका इतना व्याकुल क्यों है? खैर, रूस ने तो अफगानिस्तान को छोड़ दिया। फिर नई सरकार बनी जिस पर आरोप था कि वह अमेरिका की समर्थक है। तालिबान के प्रशिक्षण में जो पाठयक्रम पढ़ाया गया था, उसमें देश की रक्षा के साथ-साथ इस्लाम की रक्षा के भी अध्याय थे। अमेरिका जिस पश्चिमी सभ्यता का रहनुमा है, वह इस्लाम विरोधी है, इसकी भनक भी तालिबान को अब तक लग चुकी थी। इसलिए तालिबान का नया निशाना नई सरकार ही थी। अमेरिका को यह नई सरकार बनानी ही थी ताकि उसका वर्चस्व अफगानिस्तान में बना रहे।

उसे इस देश को नियंत्रण में रखना था, जहां तीन साम्राज्य भारत, चीन और रूस मिलते हैं। अब उसे फिर पाकिस्तान की जरूरत थी। इस बार अफगानिस्तान के शहरों में केवल अमेरिका की फौजें ही नहीं थीं, बल्कि उसके साथ अमेरिका के सहयोगी यूरोप के अन्य देशों की फौजें भी थीं। पाकिस्तान की स्थिति और भी प्रासंगिक हो गई। वह ओसामा बिन लादेन को छिपा भी रहा था और मरवा भी रहा था। तालिबान को भी पाकिस्तान की जरूरत थी। अमेरिका को तो थी ही। लेकिन इस लम्बी लड़ाई में जब हर रोज अमेरिकी सैनिकों के ताबूत वाशिंगटन डीसी में पहुंचने लगे तो अमेरिका के लोग ही नक्शे में अफगानिस्तान की तलाश करने लगे और उसे अमेरिका से इतनी दूर देख कर सवाल करने लगे कि आखिर इतने दूर के देश में हम अपने जिंदा सैनिकों को लाशें में, क्या प्राप्त करने के लिए तबदील कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब सरकार के लिए आम जनता को देना मुश्किल था। जब जवाब देना मुश्किल हो गया तो ‘सैम अंकल’ ने पश्तूनों के देश से निकल आने का ही फैसला कर लिया। जाहिर है वे सत्ता तालिबान को सौंप कर ही आते। तालिबान से समझौता करने में फिर पाकिस्तान की जरूरत थी। अपने सारे हथियार वहीं छोडक़र अमेरिका तो 2021 में काबुल से चला गया। अब राष्ट्रपति अब्दुल गनी की सरकार और तालिबान की सेना आमने-सामने थी। जाहिर है पाकिस्तान तालिबान के साथ था या यूं कहा जा सकता है कि वह अब्दुल की सरकार को उखाडक़र पाकिस्तान समर्थक सरकार बनाने का प्रयास कर रहा था। अगस्त 2021 में अब्दुल गनी को भागना पड़ा और काबुल में तालिबान की सरकार बन गई, जिसे पाकिस्तान गलती से अपनी सरकार मानने लगा। अपनी सरकार यानी भारत विरोधी सरकार। दरअसल काबुल की सरकार को वह अपनी सरकार दो कारणों से मान रहा था। पहला कारण तो यह था कि पाकिस्तान ने तालिबान का निर्माण किया था और दूसरा यह कि तालिबान भी इस्लाम की रक्षा के लिए लड़ रहा था और पाकिस्तान का तो जन्म ही इस्लाम की रक्षा के लिए हुआ था। सब देशों ने अपने दूतावास काबुल में बंद कर दिए। भारत ने प्रतीकात्मक रूप से अपना दूतावास बनाए रखा। इस आकलन में इस्लामाबाद शायद एक भूल कर गया। वह भूल डूरंड रेखा को न समझ पाने की थी। ब्रिटिश सरकार भारत से जाने और विभाजित करने से पहले अफगानिस्तान और भारत के मध्य में एक रेखा खींच गई थी, जिसे डूरंड रेखा कहा जाता है। लेकिन पश्तून इस डूरंड रेखा के दोनों ओर रहते हैं। अंग्रेजों के भारत में आने से पहले यह डूरंड रेखा नहीं थी, पश्तून पूरे देश में घूमते थे। कुछ सौ साल पहले इस्लाम स्वीकार करने के बावजूद उनकी सांस्कृतिक चेतना नहीं बदली थी। लेकिन डूरंड रेखा ने उनको बांटने की कोशिश की। इतना ही नहीं, उसके बाद पाकिस्तान बना कर उन्हें हिंदुस्तान से काट दिया। अब तक के पश्तूनों के हुए सबसे बड़े नेता खान अब्दुल गफ्फार खान, अंग्रेजों की इसी राजनीतिक गुंडागर्दी से लड़ते रहे थे। 1947 के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान को स्वीकार नहीं किया, इसलिए पाकिस्तान की जेलों में सड़ते रहे। वे इस्लाम मजहब के पैरोकार होने के बावजूद पश्तूनों की सांस्कृतिक चेतना से नहीं टूट सके।

एक बार मैंने एक पश्तून छात्र से पूछा था, जब आपके यहां दो फरीकों में झगड़ा होता है तो जिरगा (न्याय करने के लिए बैठी पंचायत) में न्याय शरीयत से किया जाता है? शरीयत को वह छात्र इस्लामिक कानून कह रहा था। उसने कहा, न्याय करने से पहले दोनों पार्टियों से पूछ लिया जाता है कि वे निर्णय इस्लामिक कानून से चाहते हैं या पश्तूनावली से। फिर उसी के हिसाब से फैसला होता है। मैंने पूछ लिया कि दोनों में अंतर क्या है, तो उसने थोड़ा उत्तेजित होकर कहा, क्या बात करते हैं, इस्लामिक कानून तो कल की बात है, जबकि पश्तूनावली तो पांच हजार साल पुरानी है। यही मूल अंतर है जिसे पाकिस्तान के लोग तो शायद समझ रहे हैं, लेकिन अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण वहां के हुक्मरान नहीं समझ रहे। पाकिस्तान के हुक्मरान अपने देश के लोगों को इस्लाम के नाम पर उनकी सनातन सांस्कृतिक चेतना से तोडऩा चाहते हैं। पश्तून इसके लिए तैयार नहीं हैं। न तो डूरंड रेखा के इस ओर के पश्तून और न ही उस ओर के पश्तून। यही कारण है कि दशकों तक तालिबान की मदद के बावजूद आज फिर पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तालिबान सरकार आमने-सामने हैं और और भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी तालिबान सरकार के विदेश मंत्री से सार्थक बातचीत कर रहे हैं। पाकिस्तान को पश्तूनावली की सांस्कृतिक चेतना को पहचानना होगा। यही कारण है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पश्तून अपने आप को पाकिस्तान की बजाय भारत के ज्यादा नजदीक समझता है। अफगानिस्तान से भारत के संबंध इसी सांस्कृतिक चेतना पर आधारित हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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