गुम होती गुरुओं की पहचान

By: Jan 25th, 2025 12:05 am

विद्यार्थी उद्दंड होते जा रहे हैं। ऐसे विद्यार्थी फिर गुरुओं का क्या आदर-सत्कार करेंगे? आज जरूरत है अध्यापकों को भी, कि विद्यार्थियों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। फूंक-फूंक कर कदम रखें…

‘गुरु’ शब्द एक छोटा सा शब्द है, जो दो अक्षरों से मिलकर बना है। ‘गु’ और ‘रु’। ‘गु’ का अर्थ है अंधकार, ‘रु’ का अर्थ है दूर करना। अर्थात गुरु वो होता है जो हमारे मन में छाए अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश द्वारा दूर कर देता है। अर्थात हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। जीवन में हमेशा सदमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। जो हमें जीवन पथ पर भटकने से बचाता है तथा जीवन में हमारा मार्गदर्शन करता हुआ हमें उन्नति की ओर ले जाता है। गुरु की परंपरा हमारे देश में बहुत प्राचीन है। यह परंपरा प्राचीन काल से आज तक चली आ रही है। इसका हिंदू संस्कृति में एक सर्वोच्च स्थान रहा है। हिंदू संस्कृति में गुरु को साक्षात परम ब्रह्म अथवा ईश्वर का स्वरूप माना गया है। हमारी प्राचीन परंपराओं के अनुसार गुरु के बिना ज्ञान संभव नहीं है। गुरु ही है जो हमें ज्ञान प्रदान करता है और इस सृष्टि के सारे रहस्यों के भेद खोलता है। गुरु के बिना हमारा कल्याण संभव नहीं है। वह गुरु ही है जो अपनी असीम कृपा करके हमारी आंखों को खोल कर रख देता है। हमें हमेशा अपने गुरुओं को पूजनीय समझना चाहिए और उनका आदर-सत्कार करना चाहिए, क्योंकि जो गुरु होता है वह कभी भी किसी का बुरा नहीं सोचता है। वह तो हमेशा हमारी भलाई में लगा रहता है। वर्तमान समय में गुरु के पक्ष में लिखी गई पंक्तियों की चमक दिन-प्रतिदिन फीकी पड़ती जा रही है। एक समय था जब शिष्य गुरु को दंडवत प्रणाम करता था। गुरु फूला नहीं समाता था। गुरु अपने शिष्य को सौ-सौ दुआएं देता था।

गुरु को अपने शिष्य पर बहुत अधिक अभिमान होता था कि वह एक न एक दिन उसका, अपने माता-पिता, अपने गांव का, अपने देश-प्रदेश का नाम रोशन करेगा। परंतु आज गुरु का सिर लाज से झुक जाता है जब उसका शिष्य बिना प्रणाम किए, बिना चरण स्पर्श किए, उसके मुंह की तरफ देखते हुए घमंड से चौड़ा सीना करके सामने से गुजर जाता है। गुरु आश्चर्यचकित-सा होकर खड़ा सोचता रह जाता है कि इस नई पीढ़ी का क्या होगा? ये विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करके किस ओर जा रहे हैं? ये क्या सीख रहे हैं? हम कह रहे हैं हमारे देश ने बहुत अधिक तरक्की कर ली है। हमने मंगल ग्रह पर भी तिरंगा फहरा दिया है। हम विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति बनने जा रहे हैं। समाज में दिन-प्रतिदिन सुधार होता जा रहा है। भविष्य तो हमारा अंधकारमय है। विद्यार्थी ही हमारा भविष्य है। वही अपना मार्ग भटक गए हैं। विद्यार्थी अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जा रहे हैं। पश्चिमी संस्कृति की ओर भागे जा रहे हैं। आज के विद्यार्थी की दौड़ एक दिशाहीन, लक्ष्य से रहित दौड़ है। आज के विद्यार्थी गुरुओं का आदर-सत्कार करना दिन-प्रतिदिन भूलते जा रहे हैं। गुरुओं का आदर-सत्कार तो दूर की बात, अपने माता-पिता का आदर-सत्कार नहीं करते। अगर माता-पिता का आदर-सत्कार करते होते तो शायद आज वृद्धाश्रम न भरे होते। एक समय था जब विद्यार्थी गुरु के सामने आने से भी डरते थे, परंतु आज के जमाने में गुरु के डर की बात तो दूर, गुरु को ही डराने लगे हैं। उलटी गंगा पहवे (पोहे) को बहने लगी है। बड़े दुख की बात है कि आज गुरुओं की पहचान गुम होती जा रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह हमारी वर्तमान व्यवस्था है। एक समय था जब राजा गुरु के पास जाता था। अब व्यवस्था यह है कि गुरु राजा के पास जाता है। चरण स्पर्श करता है, हाथ जोड़ता है, गिड़गिड़ाता है, मिन्नतें करता है। इससे उसके सम्मान को ठेस पहुंचती है। समाज में उसका कोई इज्जत-मान नहीं रह जाता। समाज की ही बात ले लो। समाज हमेशा गुरुओं के साथ न खड़ा होकर विद्यार्थियों के साथ खड़ा होता है।

चाहे गलती विद्यार्थी की ही क्यों न हो? विद्यार्थी के लिए सभी दरवाजे खुले हैं। गुरु अभिमन्यु की तरह चक्करव्यूह में छटपटाता है। उसके लिए सभी दरवाजे बंद हैं। उसके हाथ इस कद्र बंधे हुए हैं कि पानी पुल के ऊपर से गुजर जाएगा, परंतु पुल मजबूरी में सब कुछ देखता रहेगा। उसका कहां वश चलता है। व्यवस्था हमारी इतना भयानक रूप ले चुकी है कि गुरु करे तो क्या करे? व्यवस्था के आगे उसके भी हाथ खड़े हैं। वे लोग भी अध्यापकों के ऊपर उंगली उठाने से नहीं चूकते जो अपनी पढ़ाई आधी-अधूरी छोडक़र छोटी उम्र में ही शिक्षा से किनारा कर लेते हैं। उनको पता नहीं होता कि विद्यार्थी से अध्यापक बनने तक की कठिन यात्रा में कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। कुर्सी तक पहुंचने के लिए कितने आंधी-तूफानों से टकराना पड़ता है। गुरुओं की पहचान गुम होने का कारण हमारी शिक्षा प्रणाली भी है। जब विद्यार्थी बिना पढ़े पास हो जाएगा तो वह गुरुओं का क्या आदर-सत्कार करेगा? अब सरकार की ओर से अच्छी पहल की गई है कि पांचवीं और आठवीं में भी विद्यार्थी फेल किए जा सकेंगे जो किसी वजह से पढाई में नहीं चल पा रहे हैं। अगर देखा जाए तो अध्यापक भी अपनी अस्मिता के गुम होने के लिए कुछ हद तक जिम्मेवार है। जो अधिकार उनको दिए गए हैं, वे उनको अपने जीवन में उतार नहीं पा रहे हैं। कितने अध्यापक हंै जिन्होंने 2019 से, जब से पांचवीं और आठवीं में फेल होने का नियम बना है, बच्चों को फेल किया? कितने अध्यापक हैं जिन्होंने 75 फीसदी से कम हाजिरी वाले विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने से रोका? कितने अध्यापक हैं जिन्होंने उद्दंड विद्यार्थियों को असेसमेंट में फेल किया? और भी बहुत से कारण हैं जिनकी वजह से दिन-प्रतिदिन माहौल बिगड़ता जा रहा है। विद्यार्थी उद्दंड होते जा रहे हैं। ऐसे विद्यार्थी फिर गुरुओं का क्या आदर-सत्कार करेंगे? आज जरूरत है अध्यापकों को भी, कि विद्यार्थियों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। फूंक-फूंक कर कदम रखें। समाज को भी चाहिए कि उनका हरसंभव सहयोग करे।

शिक्षा प्रणाली को भी संस्कारों से युक्त बनाना होगा। सामाजिक व्यवस्था में भी सुधार करना होगा। फिर देखना विद्यार्थी अर्जुन जैसे धनुर्धारी और अध्यापक गुरु द्रोणाचार्य जैसे क्यों नहीं बनते? फिर वह दिन दूर नहीं होगा, जब भारत विश्व गुरु के सिंहासन पर विराजमान होगा। भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, बस जरूरत है उचित मार्गदर्शन करने की। सही दिशा की ओर ले जाने की। हमारे इतिहास में असंख्य उदाहरण देखे जा सकते हैं कि किस प्रकार से गुरु की कृपा से उनके शिष्य महान बन गए और संपूर्ण संसार में अपना यश फैलाया।

डा. जयपाल ठाकुर

शिक्षाविद


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