रंग, लोकगीत और परंपराओं का उत्सव

By: Mar 17th, 2025 12:05 am

समय के साथ इस मेले का स्वरूप कुछ बदला जरूर है, लेकिन इसकी आत्मा आज भी वही है। आधुनिकीकरण के प्रभाव से इसमें मनोरंजन के नए साधन जुड़े हैं, जैसे बुशैहर कार्निवल, सांस्कृतिक संध्या, प्रतियोगिताएं और व्यापारिक प्रदर्शनियां इत्यादि। इसका मूल स्वरूप आज भी लोगों को अपनी जड़ों से जोडऩे का काम करता है…

पुरानी रामपुर बुशैहर रियासत के दो सुप्रसिद्ध मेले, एक अंतरराष्ट्रीय लवी मेला तथा दूसरा जिला स्तरीय फाग मेला होता है। फाग मेला हिंदू त्योहार होली के एक दिन बाद शुरू होता है। यह मेला बुशैहर रियासत के पदम पैलेस में शुरू होता है। यहां होली वाले दिन तीन भाई देवता साहिब रचोली जाख, देवता साहब गसो तथा देवता साहिब बसाहुरू एक-दूसरे को होली लगाते पदम पैलेस पहुंचते हंै। तभी से फाग मेले का आगाज शुरू हो जाता है। बसाहरा देवता ब्रह्मा, महेश और विष्णु का रूप हैं। ऐसी मान्यता है कि पुराने समय में बुशैहर रियासत के साथ लगते चार क्षेत्र जिसमें प्रमुख शिमला, कुल्लू, किन्नौर तथा मंडी के सुकेत परगना के देवी-देवता तथा देवलू अपने-अपने वाद्य-यंत्रों के साथ अपने पारंपरिक वेशभूषा को जीवंत रखते हुए रामपुर बुशैहर में आगमन करते थे, जो बदस्तूर आज भी जारी है। आज भी इस रियासत के राज परिवार को अपना आशीर्वाद देने आते हैं। फाग मेले को मनाने की प्रथा द्वापर युग से चली आ रही है। बुशहर रियासत की राजधानी शोणितपुर हुआ करती थी। देवताओं के प्रति असीम प्यार एवं श्रद्धा पूर्व मुख्यमंत्री स्व. श्री वीरभद्र सिंह का भी किसी से छुपा नहीं था। इस मेले का जब आगाज होता है तो राज परिवार का मुखिया या परिवार का अन्य वरिष्ठ सदस्य का यहां होना निश्चित होता है। अन्यथा कई बार देवता लोक रुष्ट होकर वापस भी चले जाते हंै।

वैसे ऐसा बहुत कम हुआ है। कभी स्व. श्री वीरभद्र सिंह जी के निजी व्यस्तता के चलते यह परंपरा का निर्वहन राजपरिवार के अन्य सदस्यों के द्वारा पहाड़ी नाटी के धुरे में चोंरें (याक के बाल का) को हिलाते हुए नृत्य को और भी लुभावन कर देता है। पुरानी परंपराओं का स्थान आधुनिकता ने ले लिया है। किसी समय फाग मेले में बुशहर रियासत के लोग अपनी पारंपारिक वेशभूषा में शिरकत कर नाटी का आनंद लेते थे। यहां नाटी आज भी लगती है, परंतु पुराने लोग ही अपनी पारंपरिक वेशभूषा में देखे जाते हैं, क्योंकि युवाओं को पारंपरिक वेशभूषा से शायद परहेज शुरू हो गया है। इसी प्रकार मेले में विशेष प्रकार के व्यंजन परोसे जाते थे। लोग गांव से पोलडु, बटुरु तथा अन्य व्यंजन लाते थे जिसका आधुनिकता में फास्ट फूड ने स्थान ले लिया है। बुशहर के मेलों में मौढ़ी का विशेष महत्व रहता था। मौढ़ी को चावल और गेहूं के दानों को भूनकर बनाया जाता है जिसमें चुली की गुठली, अखरोट, गरी, भांग का बगुडू तथा गुड़ मिलाकर तैयार किया जाता था। पुराने समय में फाग मेला आपसी मिलन का भी स्थान होता था। दूरदराज के दुर्गम क्षेत्रों से लोग पैदल चल कर मेले में आते थे। अपने एक साल से बिछुड़े रिश्तेदारों व मित्रों से मिल कर मौढ़ी का आदान-प्रदान करते थे। उनका मानना था कि मौढ़ी के आदान-प्रदान से आपसी भाईचारा बढ़ता है। ऐसी भी मान्यता है कि पुराने समय में फाग मेला में गर्मी शुरू होने के कारण जनजातीय और दुर्गम क्षेत्रों के लोग बर्फ लाकर राजदरबार में बेचा करते थे। हर साल तकरीबन 20 से ऊपर देवी-देवताओं को निमंत्रण भेजा जाता है। कई बार नगर परिषद तथा स्थानीय प्रशासन की इच्छाशक्ति से लोक संगीत संध्या का प्रावधान भी किया जाता है, जो निहत पारम्परिक बुशैहर की संस्कृति के अनुरूप होता है। ताकि डेविड कार्ड, क्रेडिट कार्ड, फ्री फायर, रील की एक्टिंग और मोबाइल फोन की आभासी दुनिया के अलावा यह भी पता चल सके कि वाद्य यन्त्रों की देव धुनों में भी संगीत पनपता है। देवते नचाते है, देव लोक नाचता है, किसी बन्द कमरे में मोबाइल कैद से बेहतर मेले में लोग अपनत्व होने का आनंद प्राप्त करते हंै।

रामपुर बुशैहर का फाग मेला हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल हिस्सा है, जो परंपरा, भक्ति और लोकजीवन के रंगों को एक साथ समेटे हुए है। अपनी भव्यता, लोकनृत्य, पारंपरिक रीति-रिवाजों और आध्यात्मिकता के कारण क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण उत्सवों में से एक माना जाता है। अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए यह मेला बसंत ऋतु के आगमन और रंगों के त्योहार होली का उत्सव मनाने के लिए आयोजित किया जाता है। स्थानीय लोग पारंपरिक वेशभूषा में लोक नृत्य और संगीत प्रस्तुत करते हैं, जो क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करता है। यह मेला न केवल स्थानीय निवासियों के लिए, बल्कि पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है, जो हिमाचल प्रदेश की संस्कृति और परंपराओं का अनुभव करना चाहते हैं। रामपुर बुशैहर, जो कि सतलुज नदी के किनारे बसा एक ऐतिहासिक नगर है, अपने समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह स्थान प्राचीन समय से व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र रहा है, जहां तिब्बत, किन्नौर और अन्य पड़ोसी क्षेत्रों से व्यापारी आया करते थे। बुशैहर रियासत के शासकों ने इस क्षेत्र में कई परंपराओं को बढ़ावा दिया, जिनमें मेलों और त्योहारों का विशेष स्थान रहा है। फाग मेले की परंपरा भी इसी गौरवशाली अतीत से जुड़ी हुई है।

फाग मेले की शुरुआत मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना से होती है, जिसके बाद शोभायात्रा, लोकनृत्य और पारंपरिक गीतों का आयोजन किया जाता है। यहां के जनजीवन की जीवंतता को दर्शाता हुआ साथ ही, पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर थिरकते हुए कलाकार लोकसंस्कृति की गहराइयों को उकेरते हैं। समय के साथ इस मेले का स्वरूप कुछ बदला जरूर है, लेकिन इसकी आत्मा आज भी वही है। आधुनिकीकरण के प्रभाव से इसमें मनोरंजन के नए साधन जुड़े हैं, जैसे बुशैहर कार्निवल, सांस्कृतिक संध्या, प्रतियोगिताएं और व्यापारिक प्रदर्शनियां इत्यादि। फिर भी, इसका मूल स्वरूप आज भी लोगों को अपनी जड़ों से जोडऩे का कार्य कर रहा है। फाग उत्सव की विशेषता यह है कि देवी-देवताओं की सक्रिय भागीदारी के कारण इसमें अब तक पश्चिमी सभ्यता की घुसपैठ नहीं हो पाई है। इसलिए आज भी इस मेले में हिमाचली पहाड़ी सभ्यता, संस्कृति और रीति-रिवाजों की पूरी झलक देखने को मिलती है। हर बाहरी व्यक्ति को हिमाचली पहाड़ी संस्कृति-परंपरा को करीब से जानने का मौका मिलता है।

सिकंदर बंसल

शिक्षाविद


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