और दोस्त, कैसे हो…

By: Mar 26th, 2025 12:05 am

पिछले हफ्ते अपना खास दोस्त चला गया। होटल में बैठ उसी की शोकसभा मना रहा था कि उसका फोन आ गया, ‘क्या कर रहे हो?’
‘तुम्हारी शोकसभा मना रहा हूं और क्या’, मैंने उसकी शोकसभा मनाते चाय का घूंट लिया तो उसने पूछा, ‘अकेले ही?’
‘अब अकेले ही खुशी-गम सेलिब्रेट करने पड़ते हैं दोस्त!’
‘वो मेरी कविता पर आह! आह! करने वाले सब कहां हैं?’
‘वे सब अपनी अपनी शोकसभाओं, श्रद्धांजलियों में व्यस्त हैं, सो सोचा, मैं तो कम से कम समय पर तुम्हारा दोस्त होने के नाते तुम्हारी विधिवत शोक सभा आयोजित कर तुम्हें श्रद्धांजलि दे दूं ताकि मेरी आत्मा की शांति मिले। तुम अभी भी यहीं हो क्या? गए नहीं?’
‘जाऊंगा कैसे? उस प्रोग्राम का पारिश्रमिक तुम्हारे खाते में आ गया क्या? यार क्या बंदे हैं ये भी? हर बार पारिश्रमिक का फार्म भरवा उल्लू बना देते हैं, हमारी कविता पढऩे की विवशता का फायदा उठा’, उसने जिंदा रहने वाली मरने के बाद भी आपत्ति दर्ज की, ‘देखो दोस्त! जब तक वह तुम्हारे खाते में नहीं आएगा, मैं यहां से जाने वाला नहीं।’ बेशर्म कहीं का! खुद तो मर गया, पर कंबख्त कविता का पारिश्रमिक अभी भी जिंदा है, ‘और अपने क्रिया कर्म से फ्री हुए कि नहीं?’

‘आज हो गया!’ मत पूछो उसने कितने संतोष से कहा, ‘कैसा रहा?’
‘ठीक रहा! मस्त मस्त! अपने क्रिया कर्म से बहुत खुश हूं’, सुनकर अच्छा लगा, ‘अब कहां जाने का सकोप है?’ मैंने यों ही पूछा तो वह चुप हो गया। मैंने पुन: पूछा, ‘अब कहां जाने की उम्मीद लग रही है?’
‘रहने दे! सच कहूंगा तो लाखों करोड़ों के धंधे बंद हो जाएंगे। पेट पर ताले लग जाएंगे।’ हद है यार! सच कहने में अभी भी आपत्ति! ठीक है, ‘तो मुझे फोन किसलिए किया था?’
‘हां यार! एक बात करनी थी। देख, मुझे पता नहीं था कि मैं इतनी जल्दी चला जाऊंगा।’
‘सो पता तो किसी को भी नहीं होता’, मैं भाड़े का टट्टू दार्शनिक बना, ‘बोल, अब क्या बचा है तेरा यहां?’

‘कविताओं के पारिश्रमिक के अतिरिक्त मेरे घर में मेरी किताबें हैं यार! हो सके तो उन्हें वहां से ले जाना। मैंने अपनी ही तरह के मुझसे पहले गुजरे लेखक के मरने के बाद देखा था कि उसकी किताबें उसके कमरे से हटा वहां गेस्ट रूम बना दिया गया था।’ किताबों के प्रति मरने के बाद भी उसकी श्रद्धा देख मन मोर हो बैठा, ‘तो?’
‘मेरी किताबें वहां से ले जाना। तेरा बहुत शुक्रगुजार रहूंगा। और हां! मेरी कुछ अप्रकाशित कविताएं भी हैं उनमें। भले ही उन्हें अपने नाम से छपवा लेना। मुझे बुरा नहीं लगेगा। यहां तो लोग लेखक के जिंदा रहते ही उसकी रचनाएं उसके मुंह के सामने ही अपनी बता पारिश्रमिक ले हवा होते रहे हैं। तेरे नाम से ही सही, इस बहाने कम से कम मेरे विचार कागजों से निकल हवा में तो तैर जाएंगे। उनमें कोई सांस ले या न! वैसे भी अब समाज को गंदी हवा में सांस लेना रास आने लगा है।’ ‘देखो दोस्त! माना तुम मेरे दोस्त हो। पर सच ये है कि किताबों की रद्दी को आजकल कबाड़ी भी नहीं लेते। पिछले हफ्ते मैंने भी अपनी किताबें निकालनी चाही थीं। पर उसने साफ-साफ कह दिया था कि और तो छोड़ो, इनसे तो आलू प्याज के लिफाफे तक नहीं बनते। कबाड़ी किताबों की रद्दी से सौ गुणा बेहतर अखबारी रद्दी को मानते हैं।’ मैंने उसका फोन काटा और उसे श्रद्धांजलि देने में व्यस्त हो गया।

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com


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