छिलकों की छाबड़ी : क्रांति का विकलांग चेहरा

By: Mar 20th, 2025 12:02 am

शिक्षा क्रांति के दावों के बाद स्कूलों का चेहरा बदल गया है। हमारे बच्चों को कुपोषण का मर्ज है। घर में तो उन्हें उचित खाने को मिलता नहीं, एक जून रोटी मिल जाए तो भी असंख्य धन्यवाद। सरकार ने बच्चों के हाथ में पुस्तक और पेट में रोटी देने के लिए स्कूलों में बच्चों के लिए मध्य दिवस भोजन योजना शुरू कर दी थी। उम्मीद थी कि कम से कम एक समय तो उन्हें उचित भोजन मिल जाएगा। उधर सर्व शिक्षा अभियान भी चला रखा है। प्राथमिक शिक्षा के लिए सब बच्चों को संवैधानिक अधिकार भी दे दिया है, लेकिन देने की घोषणा करने और वास्तव में मिल जाने के सच में यहां योजना का अंतर होता है। पब्लिक स्कूल कल्चर की कमर तो टूटी नहीं। गरीब बच्चों को इन स्कूलों की फ्री आरक्षित सीटों पर दाखिला नहीं मिला। बीच में निजी शिक्षा के मसीहाओं ने अदालतों की निषेधाज्ञा खड़ी कर दी। अब इंतजार और अभी। आंकड़ा शास्त्रियों ने बताया है कि इस देश में पांच साल की उम्र तक के बच्चे आधे से अधिक काल कलवित हो जाते हैं, तो बारह-चौदह साल के बच्चों में भी कुपोषण की वजह से, उसी तरह लगभग आधे काल का ग्रास हो जाते हैं। शेष जो बचते हैं, उनमें से बड़ी तादाद मानव तस्करों की कृपा से लापता होकर तेल धनी देशों के शेखों के द्वार तक पहुंच जाती है। लेकिन अब मध्यपूर्व के इन देशों में राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ जाने के बाद सोचा जा रहा है, कि क्या इससे धनी शेखों के धन के पहाड़ कुछ कम हो जाएंगे? क्या उनकी रुचियों, ऐश्वर्य और विलास में कुछ अंतर आएगा? अंतर तो चाहे न आए, लेकिन इसी आशंका से हो सकता है कि मानव तस्करी के धंधे में कुछ मंदा हो जाए। बच्चे अगर अपहृत होकर लापता कम होने लगेंगे, और गरीबों की गूदड़ बस्तियों में दनदनाते नजर आएंगे तो हो सकता है उन्हें शिक्षा का मूल अधिकार देने की घोषणा पूरी हो जाए। स्कूलों में मध्यदिवस भोजन देने की योजना शुरू होकर भ्रष्टाचार की नजर लग जाने से बंद होने के कगार पर है। कहीं-कहीं तो उच्च न्यायालय के आदेश से इसे पुन: जीवनदान मिला है और अब यह लडख़ड़ाती और कांपती-कराहती पुन: उठती नजर आ रही है, लेकिन केवल भूख ही तुष्ट करना क्यों, यहां तो अधनंगे बदनों को कपड़े से भी ढकने की समस्या है। अपने राज्य के स्कूलों में सरकार ने बच्चों के लिए मुफ्त वर्दियां बांटने की घोषणा की है। लालफीताशाही इसे भूल गई, खाली खजाने का रुदन राग तो चलता ही रहता है।

सुबह के मुर्गों ने दोपहर को बांग दे दी, सरकारी मशीनरी जागी। गर्मियों की वर्दियां सर्दियों में बंटी। अब उम्मीद है कि सर्दियों की वर्दियां भरपूर गर्मी तक बंट सबका उपकार कर सकेंगी। भई, भला हो पर्यावरण प्रदूषण वालों का। मौसम का सारा गणित बिगाड़ रखा है। गर्मी के दिनों में सर्दी पडऩे लगती है और सर्दियों में पंखा चलाने की नौबत आती है, कि जैसे सावन की बेवफाई ने बिन बादल बरसात के अतिकथन को सच करना शुरू कर दिया है। उम्मीद है कि इससे इन वर्दियों का इस्तेमाल भी बेमौसम नहीं लगेगा। इस पर्यावरण प्रदूषण से जल्द तो छुटकारा मिलेगा नहीं, क्योंकि चचा सैम ने ‘अमरीका अमरीकियों’ का वादा लगा कर इन संधियों पर हस्ताक्षकर करने से मना कर दिया है, और सजा के तौर पर ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा कर तीसरी दुनिया के देशों का तेल-डीजल बंद करने का प्रयास किया है। अब अगर महंगा होता कच्चा तेल कम आयात होने लगेगा तो इसका प्रयोग भी कम होगा। यूं पर्यावरण प्रदूषण अपने आप कम हो जाएगा। हमें जनसंख्या का माल्थस सिद्धांत याद आ गया कि अगर ज्योमैट्रिक प्रोग्रेशन से बढ़ती जनसंख्या को निरोधक उपायों से रोका नहीं गया तो प्रकृति अपना आपदाओं और मौत का तांडव बढ़ाकर जनसंख्या कम कर देगी।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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