प्रकृति संरक्षण के कृतसंकल्प लिए जाएं
आज के प्रगतिवादी, आधुनिक और तर्कशील व्यक्ति अपनी कपोल कल्पना के वशीभूत होकर प्राचीन लोगों को मूर्ख समझते हैं, किंतु उन्हें जलवायु की दुर्दशा देखकर अपने बारे में भी यह सत्य जानने-समझने की अति आवश्यकता है कि अपने जीवन के आधार पंचतत्त्वों को पराकाष्ठा तक विकृत करने में वे सर्वाधिक दोषी हैं। पहले के मनुष्य जीवन की प्रत्येक गतिविधि को दूरदर्शी नीतियों के अनुसार निर्धारित करते थे…
आधुनिक प्रगति की असंख्य उलझी हुई समस्याओं के साथ निरंतर उत्पन्न होतीं मौसम संबंधी अस्थिरताएं भी मनुष्य को हतप्रभ कर रही हैं। इस बार होली दिवस के संध्याकाल से ही भारत सहित विभिन्न देशों में जलवायु प्रतिकूल होनी आरंभ हो गई। परिणाम में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड की संपूर्ण पर्वतमाला के ऊंचे शिखरों पर हुए हिमपात, वर्षा, आंधी-तूफान द्वारा जलवायु पुन: अस्थिर हो उठी है। होली दिवस के अपराह्न काल से आरंभ हुआ ऐसा अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन पहले कभी यदा-कदा ही घटित हुआ होगा। ऐसा परिवर्तन वायुमंडल की वातानुकूलन स्थिति को ध्वस्त कर रहा है। यह दुष्चक्र विगत दस-पंद्रह वर्षों सेे तीव्रतापूर्वक अप्रकट रूप में घूम रहा है। इस पर आधुनिक विज्ञान और वैज्ञानिकों का कोई नियंत्रण नहीं है। यह मनुष्य के अल्पावधि के जीवन को भी केवल और केवल कठिनाइयों, समस्याओं व पीड़ाओं से घेर रहा है। इस लेखक ने स्वयं पहाड़ी क्षेत्र में रहते हुए 14 मार्च को रात 12 बजे के बाद से लेकर 15 मार्च प्रात: 9 बजे तक भयंकर तेज हवाओं, अंधड़, तूफान और घन गर्जनाओं का सामना किया। वायु की गति इतनी तीव्र थी कि विशाल आकार के बीस-पच्चीस फुट लंबे-चौड़े वृक्ष जड़मूल धराशायी हो गए। घन गर्जनाएं ऐसी प्रतीत हुईं कि घर को नींव से भी नीचे गहरे जाकर उखाड़ रही हों। घरों में बनाए हुए अपने घोंसलों में रहने वाले गौरैया पक्षी इस विध्वंसकारी वातावरण में बाहर निकलने का साहस नहीं कर सके। विशाल वृक्षों को तोड़-मरोड़ कर रख देने वाली तेज हवाओं के सम्मुख नन्हे पक्षियों का क्या अस्तित्व! प्राय: ब्रह्म मुहूर्त में अपनी चहचहाटों के साथ फुदकने वाले गौरैया सहित अनेक अन्य पक्षी इस जलवायुगत विपत्ति में नि:श्वास एवं अस्तित्वहीन होकर दुबके हुए थे।
ऐसे में क्या मनुष्य का घर और क्या पक्षी का घोंसला, सभी आश्रयस्थल असुरक्षित थे। इस प्रतिकूल परिस्थिति में पूरा जीवन ही असुरक्षित हो उठा था। यह सभी कुछ होने की समयावधि में जो जन गहरी नींद में थे, उनके निद्रास्वास्थ्य का अभिनंदन है। किंतु यह लेखक तो पूरे छह-सात घंटे तक प्रकृति के विनाशक तांडव के थमने, रुकने की ही प्रतीक्षा करता रहा। यह पारिस्थितिकी असंतुलन भारत के वायुमंडल तक ही सीमित नहीं था। इसी समयावधि में अमेरिका के मध्य-पश्चिमी व दक्षिणी क्षेत्र के मिसौरी, अर्कांसस, टेक्सास, ओक्लाहोमा, कंसास और मिसिसिपी में भी आंधी-तूफान, वर्षा-हवाओं के कारण 34 लोग मारे गए और 29 घायल हो गए। अमेरिका के इन क्षेत्रों में भी वैसी ही अग्नि भडक़ी हुई है जैसी जनवरी में कैलिफोर्निया के जंगलों में थी। हवाओं से अग्नि का तीव्र प्रसार हो रहा है। परिणामत: मिसिसिपी, अलबामा और टेनेसी सहित अनेक क्षेत्रों के लगभग नब्बे लाख लोग तेज हवाओं से प्रज्ज्वलित अग्नि बवंडर से प्रभावित हो सकते हैं। वहां आठ करोड़ अ_ाईस लाख की जनसंख्या को हवा के अलर्ट के बारे में सूचित किया गया है। मौसम का विनाशक घूर्णनकारी चक्र अमेरिका के मध्य क्षेत्र से होकर के पूर्व की ओर बढ़ रहा है। इस कारण जॉर्जिया में अत्यधिक वर्षा, अकस्मात बाढ़ आने, विनाशकारी हवा के झोंकों के चलने और तीव्रतापूर्वक फैल रहे बवंडर का संकट व्याप्त है।
भारत और अमेरिका ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों, भूभागों और इनमें रह रहे लोगों पर 14-15 मार्च का जलवायु उत्पात गहन संकट बनकर छाया। ऐसा गत पंद्रह वर्षों में कम प्रभाव के साथ, गत दस वर्षों में अधिक प्रभाव के साथ और अब विगत एक-दो वर्षों में अत्यधिक प्रभाव के साथ निरंतर कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर हो ही रहा है। जब मौसम मानवजाति के सिर पर विनाश की छतरी बनकर तन चुका है, तो क्या मानवों को अभिशप्त वैज्ञानिक प्रतिस्पद्र्धा और परिणामकारी जैविक व जीवन संबंधी गतिविधियों पर नियंत्रण का कार्य अभ्यास आरंभ नहीं कर देना चाहिए? मौसम के अप्रत्याशित संकटों के सम्मुख मानव का विज्ञान-लालच कोई महत्त्व नहीं रखता है। अत: विज्ञान के आत्मघाती प्रयोगों को रोककर मानवीय जीवन को पुन: आत्मनिर्भर ग्रामीण व्यवस्था की ओर अग्रसर करने का समय आ चुका है। कोरोना महामारी के बाद तो ऐसा हो भी जाना चाहिए था, किंतु विश्व के कर्ताधर्ता ऐसा नहीं चाहते हैं। वे महामारीजन्य अनेक असुरक्षाओं के बाद भी मनुष्य को प्रगति का दास बनाए रखने की प्रेरणा दे रहे हैं। वे मनुष्य को प्राकृतिक जीवन, स्वास्थ्य, खाद्यान्न, आनंद देने की स्थिति में तो नहीं हैं, किंतु वैज्ञानिक प्रगति के मंत्र से मुग्ध करके उसे अप्राकृतिक रूप में मरने-खपने और मरने-खपने की इस प्रतियोगिता से लगाव रखने की सीख देने में अवश्य सफल हैं। वैज्ञानिकों, पूंजीधारकों, उद्योगकारों और इनके अनुसार शासन हांकने वाले शासकों को अंतत: कितना अधिक साधन-संसाधन संपन्न होना है! ऐसी संपन्नता की कोई सीमा भी तो होगी। यदि ऐसे लोग प्रकृति के प्रकट व गुप्त तत्त्वों का राक्षसी दोहन करते हुए अपने संबंधियों और समर्थकों के लिए भी साधनों-संसाधनों की विशाल मात्रा एकत्र कर देना चाहते हैं, तो करें। इस हेतु वे अपने व अपने संबंधियों के लिए साधनों-संसाधनों के मूल्य प्रतीक और अर्थव्यवस्था के शक्ति संकेत के स्वरूप में विद्यमान मुद्रा को वास्तविक अथवा आभासी रूप में मनचाही मात्रा में एकत्र कर लें। वे ऐसा कर भी रहे हैं। किंतु गहन आश्चर्य है कि ऐसा करने के बाद भी उनका लालच रुक नहीं रहा। उन्हें स्वयं और अपनी पीढिय़ों के लिए मनचाही मात्रा में एकत्र की हुई मुद्रा भी कम ही लग रही है। यदि मनुष्यगण ऐसी ही प्रवृत्ति से ग्रस्त रहेंगे तो इसका अंतिम दुष्परिणाम प्रकृति की विनाश लीला के रूप में ही सामने होगा।
साधन-संसाधन संपन्न मनुष्यों को बारंबार यह सूत्र स्मरण करने की आवश्यकता है कि वे उपलब्ध पंचतत्त्वों का आसुरी दोहन करके वैज्ञानिक-आधुनिक प्रगति तो कर सकते हैं, परंतु पंचतत्त्वों की विकारग्रस्तता के कारण उत्पन्न होने वाली अप्रत्याशित पर्यावरणीय प्रतिक्रियाएं नहीं थाम सकते। आज के प्रगतिवादी, आधुनिक और तर्कशील व्यक्ति अपनी कपोल कल्पना के वशीभूत होकर प्राचीन लोगों को मूर्ख समझते हैं, किंतु उन्हें जलवायु की दुर्दशा देखकर अपने बारे में भी यह सत्य जानने-समझने की अति आवश्यकता है कि अपने जीवन के आधार पंचतत्त्वों को पराकाष्ठा तक विकृत करने में वे सर्वाधिक दोषी हैं। पहले के मनुष्य जीवन की प्रत्येक गतिविधि को दूरदर्शी नीतियों के अनुसार निर्धारित करते थे। अपने जीवन को जीते हुए, उसे संभालते हुए, उसका चहुंदिश आनंद लेते हुए और उसका सम्मान करते हुए वे हमारी अर्थात् अपनी भावी पीढ़ी की पर्यावरणीय सुरक्षा के बारे में भी विचार किया करते थे। यदि वे हमारी चिंता न करते और हमारी ही तरह पंचतत्त्वों का कठोरतापूर्वक दोहन करते तो क्या वर्तमान धरती, आकाश और अन्य जीवन-तत्त्व हमारे लिए उपलब्ध रह भी पाते। आज के वैज्ञानिकों से लेकर साधारण जन को इस बिंदु पर अवश्य विचार करना चाहिए। संभवत: तब हमारे भीतर प्रकृति के प्रति सम्मान उत्पन्न हो सके और तत्पश्चात हम उसका क्रूर दोहन न कर अपनी भावी पीढ़ी हेतु उसे संरक्षित करने के कृतसंकल्प लें।
विकेश कुमार बडोला
स्वतंत्र लेखक
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