निरंकार प्रभु की महानता

By: Mar 22nd, 2025 12:22 am

बाबा हरदेव

गतांक से आगे…

मानो चेतना के सागर में हम सब घड़े है मिट्टी के। अब घड़े तो अलग होंगे ही, परंतु घड़े के जो भीतर है ये अलग नहीं है। अत: पूर्ण सद्गुरु द्वारा जो ऊपर वर्णन किए रहस्य को जान लेता है वह आसानी से अनुभव करने लग जाता है कि घड़े चाहे कितने ही अलग हों, घड़े के भीतर जो पानी है ये एक ही है। ऐसा व्यक्ति फिर काम चलाऊ सहानुभूति से पार हो जाता है और ये फिर समानुभूति में प्रवेश कर जाता है और समानुभूति वो तत्त्व है जहां एक ही शेष रह जाता है। यहां दूसरा नहीं है। इसे अद्वैत कहें, ब्रह्म कहें, परमात्मा कहें या फिर कोई और ये जो मन और चित्त के पार परम अनुभूति है ये अध्यात्म की श्रेष्ठतम ऊंचाई है। अत: केवल आध्यात्मिक व्यक्ति ही कह सकता है कि सूरज में जो ज्योति जल रही है वही एक छोटे से मिट्टी के दीये में जल रही है। कण-कण में जो विराजमान है वही विराट में भी है। मानो बंूद और सागर एक ही चीज के दो नाम है। ‘सहानुभूति’ का अर्थ है बूंद और सागर एक है। संपूर्ण अवतार बाणी का फरमान है।

कहे अवतार बूंद मिल सागर सागर ही अखवांदी ए।

अब जीवन एक सतत प्रवाह है जीवन एक अखंड धारा है, जीवन एक है। अत: जिसने बूंद को पूरा जान लिया उसे सागर के बारे में जानने को कुछ बाकी नहीं रह जाता। एक बूंद जान ली, तो पूरा सागर जान लिया, मानो जिसने अपने भीतर बूंद को पूर्ण सद्गुरु द्वारा जान लिया उसने सबके भीतर के सागर को भी जान लिया। फिर ऐसे मनुष्य का ‘मैं’ (अहंकार) विदा हो जाता है, क्योंकि विराट की जानकारी की कमियों में अहंकार पिघलना शुरू हो जाता है, फिर दूसरों के गम और पीड़ा को अपने में समेटने की समर्थता उपलब्ध होती है। वास्तव में समानुभूति दूसरों में खो जाने का नाम है। अपने-आपको खोना है, मिटाना है। बेदिल सरहदी साहिब ने अपने बहुमूल्य वचनों में इसे इस तरह से बयान किया है।

बेदिल कोई उदास दिखाई न दे कहीं
दुनिया के गम समेट लूं मेरा जो बस चले

इतिहास इस बात का साक्षी है कि अनंत युगों से अवतारी पुरुष और बुद्धपुरुष अनंत-अनंत अभिव्यक्तियों और संभावनाओं को लेकर इस जगत में अवतरित हुए और जब उन्होंने पूर्ण सद्गुरु द्वारा सत्य को जाना, तो जो जाना ये तो एक था। अत: उन्होंने ‘एक’ ही बात कही ‘एक’ ही धर्म की ओर इशारा किया है। कई धर्मों की चर्चा नहीं की, मगर जब इस ‘एक सत्य’ को कहा तो अनेक हो गया, क्योंकि सत्य कहते ही अनेक हो जाता है और फिर जब लोगों ने उसे सुना तो और भी अनेक में से अनेक हो गए, क्योंकि फिर सुनने वालों के अपने-अपने अर्थ हुए।

इस तरह से फिर सदियां बीत जाती हैं, फिर व्याख्याएं आरोपित होती चली जाती है। परिणामस्वरूप दुनिया में फिर कई तथाकथित धर्म और संप्रदाय पैदा हो जाते हैं। हालांकि सत्य तो ‘एक’ है। अब अगर हम इस वास्तविकता को स्मरण रखते हैं, तो हमारे हृदय में वैमनस्य चला जाएगा और हमारे हृदय में दूसरों के प्रति ‘सद्भाव’ होगा। फिर उदाहरण के तौर पर पवित्र गीता के प्रति सम्मान और पवित्र कुरान के प्रति अपमान नहीं होगा। इस सूरत में यदि एक व्यक्ति को पवित्र गीता प्रीतिकर है तो ये पवित्र कुरान को प्रीतिकार मानने वाले दूसरे व्यक्ति की अवहेलना नहीं करेगा, क्योंकि पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा ये भली प्रकार जान लेता है कि दूसरा व्यक्ति भी सत्य की खोज की तरफ चल रहा है और अगर इस प्रकार की सद्भावना हमारे हृदय में अभी पैदा नहीं हुई है, तो समझ लेना चाहिए कि हम वास्तविक धार्मिकता और भगवत्ता से कोसों दूर हैं।


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