आओ कब्र खोदें

By: Apr 29th, 2025 12:05 am

-गतांक से आगे…

आंखें छोटी करते हुए वह मुझसे बोले, ‘अगर मायने नहीं रखता तो उठाया क्यों जाता? पर यह पूछो कि किसके लिए मायने रखता है? जाहिर है हर रोज दो जून की रोटी के जुगाड़ में लगे लोगों के लिए ऐसे मुद्दे कोई मायने नहीं रखते। काम-धंधे में लगे लोगों के लिए भी इनका कोई मतलब नहीं होता। कौन अपनी रोटी या काम-धंधा छोड़ कर फालतू बातों में समय खराब करेगा। यह तो गुंडों-मवालियों और फसली बटेरों का काम है। जरूरी नहीं कि खादी में लिपटा हर मगज ऐसी सोच रखता हो। पर अधिकांश लोग ऐसे ही हैं और सत्ता में बने रहने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे लोग जो अपने लिए मेहनत नहीं कर सकते वे देश और समाज के लिए क्या हाड़ तोड़ेंगे। उनका मकसद तो पैसा कमाना है, फिर चाहे वह कमीशन-घूस से आए या देश बेच कर आए। अगर ये लोग सामाजिक उत्थान का कोई लक्ष्य सामने रखेंगे तो देश सवाल करेगा। सवालों से बचने के लिए ये लोग समय-समय पर ऐसे मुद्दे खड़े करते रहते हैं। कभी धर्म सामने आएगा तो कभी इतिहास में विधर्मी शासक द्वारा किए गए अत्याचार, कभी भैंसें सामने आएंगी तो कभी कपड़ों से की जाने वाली पहचान। लेकिन कभी यह लक्ष्य सामने नहीं आता है कि वियतनाम की तरह अगले दस सालों में देश पूरी तरह साक्षर हो जाएगा या बांग्लादेश की तरह परिवार नियोजन शत-प्रतिशत लागू हो जाएगा। लेकिन अगर लोग पढ़े-लिखे होंगे और परिवार छोटे होंगे तो गरीबी ख़ुद-बख़ुद दूर कर लेंगे। याद रखना कि सत्ता कभी नहीं चाहती कि लोग ख़ुद मुख्तार हों। ऐसे लोग किसी भी सत्ता के लिए फायदेमंद नहीं होते। इसलिए आज़ादी के अमृत काल में भी न गरीबी हटी और बेरोजगारी तथा न गरीब और बेरोजगार। क्योंकि चुनावों में सत्ता तक पहुंचने के यही दो पहिये हैं। तुमने कभी सोचा है कि फ्रांस या रूस की क्रांतियां क्यों हुई थीं। अपने देश में गाहे-बगाहे प्रदर्शन होते रहते हैं, पर कभी इतने बड़े पैमाने पर क्रांति नहीं होतीं।

छोटे-मोटे प्रदर्शनों को कुचलना आसान है। इसलिए सरकारें नस्ल, जाति, धर्म, संप्रदाय, इतिहास वगैरह के भेद और मुद्दों से समाज को विभाजित रखती हैं ताकि लोग कभी इक_ा न हो सकें। अगर ऐसा न होता तो कबाइली इलाकों के जंगलों सहित तमाम संसाधनों पर कब्जा कैसे होता? हसदेव और कांचा गचीबावली के जंगल कैसे कटते?’ इतना कहते-कहते उनकी गंभीर आंखों से उदासी झांकने लगी। उनके साथ मैं भी गंभीर और उदास हो उठा। कुछ देर शांत रहने के बाद मेरी जिज्ञासा के कीड़े पुन: उसी तरह कुलांचे भरने लगे जैसे किसी नेता के जनसभा में संबोधन के लिए आमंत्रित न किए जाने पर होते हैं। मैंने उनसे कहा कि जब आपको इन सारी चीज़ों की इतनी गहरी समझ है तो आप अपने घर में क्यों कब्र खुदवा रहे हैं? इस बार वह तिरछी हंसी हंसते हुए बोले, ‘पण्डित जी, स्वार्थ, खालिस स्वार्थ, शुद्ध सोने की तरह 24 कैरेट स्वार्थ। नौकरी में इतने पैसे बचते नहीं थे कि लाखों की ज़मीन खऱीद कर, लाखों का मकान बनवा सकूं या महंगी गाड़ी खऱीद सकूं। फिर बच्चों की पढ़ाई और तमाम तरह के ख़र्चे। इसलिए कमीशन खाई, रिश्वत खाई, घपले-घोटाले किए। फिर सरकार ने जांच बिठाई। अब इससे बाहर तो आना है। सरकारी नौकरी के दौरान बिगड़ी आदतें पेंशन से पूरी नहीं होतीं। इसलिए सरकारी दरबार में शामिल होना ज़रूरी है। क्या फर्क पड़ता है मेरे जैसे लोग किसी भी दरबार में अपनी गोटियां फिट कर सकते हैं।

चाहे वह दरबार एक पार्टी का हो या दूसरी पार्टी का, देशी हो या विदेशी। मेरे जैसे लोगों को सिर्फ मलाई चाहिए। रही बात कब्र खोदने की, चाहे वह औरंगज़ेब की हो या किसी पीर-फकीर की, हमें तो मुद्दा चाहिए। कमाई के लिए मुद्दे ही चाहिए। मेहनत कौन करे? कौन इनोवेटिव हो, कौन दिमाग खपाए? बॉलीवुड में कितनी फिल्में बनती हैं हर साल. जो कहीं ख़ुद को दजऱ् करवा सकें। कभी छावा तो कभी मणिकर्णिका, कभी स्काई फोर्स तो कभी तेजस, कभी वीर सावरकर तो कभी गदर-टू जैसी फिल्में केवल शुद्ध कमाई के लिए बनाई जा रही हैं। लेकिन इनका फ्लॉप होना बताता है कि लोग अब समझ रहे हैं कि असलियत क्या है, मकसद क्या है? पर फिर भी समाज बंटा हुआ है।’ -(क्रमश:)

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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