भगवान परशुराम ने गुरु द्रोण को सिखाई शस्त्र विद्या

By: Apr 26th, 2025 12:29 am

पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। गौ, ब्राह्मण और साधु असुरक्षित हो गए थे। ऐसे समय में भगवान स्वयं परशुराम के रूप में जगदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका के गर्भ से अवतरित हुए। भगवान परशुराम जी को चौबीस अवतारों में से एक माना जाता है। परशुराम सभी युगों त्रेतायुग, द्वापर, कलियुग में, युगों तक अस्तित्व में रहने वाले महान अवतार थे। बाद में इनका वास महेंद्र पर्वत पर था, जहां पर इन्होंने द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह और कर्ण जैसे महान व्यक्तियों को शस्त्र विद्या सिखाई थी। वे शस्त्र और शास्त्र, दोनों ही विधाओं में निपुण थे। उन दिनों राजा सहस्रबाहु अर्जुन था। वह बहुत ही अत्याचारी और क्रूर शासक था। परशुरामजी को उसकी दुष्टता की जानकारी मिली तब उन्होंने सहस्रबाहु अर्जुन को मार डाला। अनुकूल अवसर पाकर एक दिन सहस्रबाहु के लडक़े आश्रम आ पहुंचे। उस समय महर्षि जमदग्नि को अकेला पाकर उन पापियों ने उन्हें मार डाला। परशुराम जी ने दूर से माता का करुण-क्रंदन सुन लिया। भगवान ने देखा कि वर्तमान राजा अत्याचारी हो गए हैं। इसलिए उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीयहीन कर दिया। तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पिता को जीवित कर दिया और अंत में भगवन यज्ञ में सारी जीती हुई पृथ्वी दान कर स्वयं महेंद्र पर्वत पर चले गए। महेंद्र पर्वत पर विराजमान भगवान परशुराम जी को हम सब प्रणाम करते हैं।

भगवान परशुराम जिन दिनों शिव से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, भगवान शिष्यों में से ऐसे प्रतिभाशाली छात्र की तलाश कर रहे थे, जो न्याय और औचित्य के प्रति अटूट निष्ठावान हो, साथ ही निर्भय और पराक्रमी भी। सच्चा ढूंढने के लिए भगवान शिव ने कुछ अनुचित आचरण आरंभ किए और बारीकी से देखा, शिष्यों में से किसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? कई चले गए, कुछ सहन कर गए, परंतु केवल परशुराम ही एक ऐसे थे, जिन्होंने विरोध किया। एक दिन बात बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंची कि परशुराम तनकर खड़े हो गए और न मानने पर शिव जी का सिर फोड़ देने को तत्पर हो गए। भगवान को विश्वास हो गया कि यही है, जो अनीति को दूर कर सकेगा। उन्होंने प्रसन्न होकर परशुराम को दिव्य परशु (फरसा) प्रदान किया और सहस्रबाहु से लेकर धरातल के समस्त आतताइयों को समाप्त करने का आदेश दिया। शिव जी के सहस्रनामों में से एक नाम ‘खंड परशु’ भी इसलिए पड़ा। बालक द्रोण महर्षि भारद्वाज के आश्रम में वेदाध्ययन करते थे। प्रयागराज तीर्थों का राजा था, विद्या का भी केन्द्र था। आज तक भी है। भारद्वाज जी के विद्याकेन्द्र में दूर-दूर के विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। द्रोण के साथ राजा पृषत् के पुत्र द्रुपद भी पढ़ते थे। यह तो सभी जानते हैं कि भारद्वाज जी वेद, वेदांग-व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, धनुर्वेद, आयुर्वेद आदि के अद्वितीय विद्वान थे। उनके ब्रह्मलीन होने के पश्चात द्रुपद अपने देश उत्तर पांचाल के राजा हो गए और द्रोण अपने आश्रम में जाकर रहने लगे। उन्हीं दिनों उन्हें ज्ञात हुआ कि जमदग्निनंदन परशुरामजी अपना सर्वस्व ब्राह्मणों को दान कर रहे हैं और ऐसा वे कई बार कर चुके हैं। उनको भी इच्छा हुई कि इस अवसर का लाभ उठाया जाए। उन्होंने निश्चय कर लिया कि परशुरामजी से धनुर्विद्या संबंधी पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर संसार में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन जाएं। श्री द्रोणाचार्य भगवान परशुरामजी की सेवा में महेन्द्र पर्वत पर पहुंच गए। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी गए। आचार्य ने शिष्यों सहित परशुराम जी को प्रणाम किया और निवेदन किया, ‘गुरुवर! मैं महर्षि अंगिरा के गोत्र में ऋषि भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूं। मैं बिना योनि संसर्ग के ही उत्पन्न हुआ हूं। आपसे कुछ प्राप्त करने के लिए उपस्थित हुआ हूं।’ श्री परशुराम जी ने कहा ‘मेरे पास जो कुछ भी था, सब ब्राह्मणों को दे चुका हूं। सम्पूर्ण पृथ्वी पहले ही महर्षि कश्यप जी को दे चुका हूं। अब मेरे पास देने को कुछ रहा ही नहीं, केवल मेरा शरीर और अस्त्र-शस्त्र ही शेष हैं, इन वस्तुओं में से तुम जो चाहो, मांग लो।’ द्रोणाचार्य ने प्रार्थना की, ‘भृगुनंदन! मैंने अब तक सभी सामान्य विद्या अपने पिता जी से ग्रहण कर ली हैं। आप मुझे धनुर्वेद की विशेष शिक्षा देने की कृपा करें और शिक्षा के साथ ही सारे अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान करने की कृपा करें। परशुराम जी ने सहर्ष ही द्रोणाचार्य जी को सब विद्या सिखाकर दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी दे दिए। द्रोणाचार्य ने शिष्यों सहित परशुराम जी को प्रणाम कर अपने आश्रम को प्रस्थान किया।

भगवान परशुराम जी महेंद्र पर्वत पर सघन पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे हुए विश्राम कर रहे थे। तभी कर्ण ने जाकर दूर से ही उन्हें प्रणाम किया और अत्यंत विनयपूर्वक निवेदन किया, ‘प्रभो! मै। भृगुवंश में उत्पन्न ब्राह्मण बालक हूं। आपकी शरण में ब्रह्मास्त्र विद्या पढऩे के उद्देश्य से उपस्थित हुआ हूं, आप कृपा करके मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करें।’ परशुराम जी ने उसे शिष्य स्वीकार किया। कर्ण ने उनसे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना तथा उपसंहार सहित सभी विद्या क्रियात्मक रूप से सीख ली। पृथ्वी पर फिर अत्याचार बढ़ गए। द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि क्षत्रिय लोग उत्पात करने लगे और जरासंध के पापों से भी सभी पीडि़त हो रहे हैं। इन सबका अंत निकट है। जरासंध का मरना कुछ कठिन है, उसने अधिकांश राजाओं को बंदी बना रखा है। अत: इसके वध के लिए हमें कुछ विशिष्ट अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। इस तरह श्रीकृष्ण व बलराम ने भी कई प्रयोग परशुराम से ही सीखे।

-डा. ओ.पी. शर्मा, शिक्षाविद


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