शहरी वजूद में खुली सांस
शहरी स्वच्छता के पैमानों में दम भरते हुए हिमाचल ने अपने नगरीय जीवन की नब्ज टटोली है। सूची के शिखर पर सोलन, तो अंतिम आठवें स्थान पर हमीरपुर रहा। आश्चर्य यह कि शिमला की स्वच्छता के अलंकार भी केवल सांतवां स्थान अर्जित कर पाए, जबकि धर्मशाला दूसरे स्थान पर रहा। स्वच्छ शहर-समृद्ध शहर की परिकल्पना में नगर निगमों की जमीन पर, शहरों की यह व्याख्या बता रही है कि इस सफर की कहानी कठिन है। यही सर्वेक्षण राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचल के शहरीकरण को कमजोर मानता है। यहां राजधानी शिमला अगर निचली पायदान पर नजर आ रही है, तो यह चिंता का विषय है। यह इसलिए भी कि स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत शिमला की स्वच्छता के आदर्श परिमार्जित होने चाहिएं, जबकि राजधानी का रुतबा लुढक़ गया। पर्वतीय शहरों की जरूरतें नागरिकों की बदलती जीवन शैली के कारण तीव्रता से बढ़ रही हैं और इसी परिप्रेक्ष्य में कचरा भी बढ़ रहा है। शहरों के वजूद को खुली सांस लेने में तकलीफ है। गलियां तंग हैं, गलियां बंद हैं, जबकि भविष्य की नाकेबंदी पर नागरिक असहमति का राज है। स्वच्छता के दर्पण में टीसीपी कानून और टीसीपी महकमा कहीं छटपटा रहा है। इन आठ शहरों की नगर विकास योजना या तो मुकम्मल नहीं या आज तक सक्षम नहीं। स्वच्छ शहर की अहर्ताओं को पहचाने बिना शहर न तो सक्षम और न ही समृद्ध होंगे। सोलन जिसे मूल्यांकन में टॉप पोजिशन मिली है, उसे भी नागरिक जरूरतों से जूझना पड़ रहा है। पिछले दशक में बेशक नागरिक समाज और समृद्ध तथा शुमारी में शहर आगे हो गया, लेकिन पूरे शहर में एंबुलेंस पहुंचानी हो तो शीर्षासन करना पड़ेगा। सडक़ों के किनारे खड़े वाहनों को हटाना हो, तो नियमावली बदलनी पड़ेगी।
सार्वजनिक परिवहन की नई परिभाषा में इलेक्ट्रिक वाहन और रज्जु मार्गों का जाल बिछाना पड़ेगा। शहर में पार्किंग सुविधाओं और पार्कों में खुली सांस के लिए अतिरिक्त जमीन चाहिए। यह आज से सोचना पड़ेगा कि सोलन को कहां तक बढ़ाएं और कहां रोक दें। एक दिन इस सोलन में नया सोलन चाहिए। बेशक निजी व्यापारी पहाड़ खोद कर जमीन बेच रहे, लेकिन पर्वतीय शहर की आबरू बची कहां। शिमला का भविष्य ‘राज्य राजधानी क्षेत्र’ में बांटना होगा। शिमला अपने परिसर में कई सेटेलाइट टाउन की विरासत में खुद को बचा व संवार सकता है। इसके लिए वाकनाघाट में एक कर्मचारी नगर बसाकर वहां कुछ दफ्तर व सरकारी आवासीय व्यवस्था करनी होगी। धर्मशाला की स्मार्ट सिटी परियोजना 2109 करोड़ से सिमट कर 631 करोड़ की रह गई। यहां केंद्र ने 581 करोड़, जबकि राज्य ने मात्र 50 करोड़ दिए। आश्चर्य यह कि इस परियोजना को समझाने या आगे बढ़ाने के लिए सीमेंट-सरिया और ठेकेदारों के बीच एक जरिया ही समझा गया। कई योजनाओं के तिलक विभाग ले गए। एचआरटीसी को पंद्रह इलेक्ट्रिक बसें और एक वर्कशाप के लिए धन देकर भी शहर को सार्वजनिक परिवहन नहीं मिला। यह दीगर है कि स्वच्छता के नाम पर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट्स पर मेहनत हुई है। मंडी शहर हो, पालमपुर हो, हमीरपुर-ऊना हो या बद्दी, ये अपनी-अपनी मौलिकता, क्षमता और नागरिक स्वभाव की वजह से अलग-अलग चरित्र व पैमाने रखते हैं। केवल दायरे बड़े करने से कोई शहर बड़ा नजर नहीं आता, बल्कि इन सभी शहरों के लिए आगामी तीस सालों के खाके बनने चाहिएं।
शहरी जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने से पहले नगर निकायों की आर्थिक स्थिति सुधारने को दृढ़ प्रतिज्ञ होना पड़ेगा। बीबीएन के आर्थिक पहलू को उभारने के लिए हमारे प्रयास केवल औद्योगिक पैकेज तक ही सीमित रहे, जबकि यह शहर चंडीगढ़ की समीपता में कई रोशनदान खोल सकता था। बीबीएन को हिमाचल की आर्थिक और मंडी को सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विकसित करना है तो इन शहरों की कवायद में नए संकल्प जोडऩे होंगे। धर्मशाला को ग्रीष्मकालीन राजधानी, पालमपुर को चाय नगर तथा हमीरपुर को शिक्षा हब के नजरिए से आगे बढ़ाने के ख्वाब तो चाहिएं। हिमाचल के शहरी परिदृश्य को मुकम्मल करने के लिए ऊना में एक बड़ा उपग्रह शहर बसाना होगा। दो-तीन लाख की आबादी का शहर अगर ऊना में विकसित होता है, तो हिमाचल के कई वर्तमान शहरों का दबाव कम होगा तथा नागरिक मांग का समाधान विकसित हो सकता है।
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