विकास और कृषि-पशुपालन ढांचा
किसान उन्नत नस्ल के बैल पालने के बहुत शौकीन थे। कई किसान तो हरियाणा एवं पंजाब से बैल पालने को लाते थे। अनेक स्थानों पर पशु मंडियां लगती थी…
देश एवं प्रदेश की खुशहाली के लिए कृषि एवं पशुपालन क्षेत्र को मजबूत करने की नितांत आवश्यकता है। इससे ग्रामीण क्षेत्र में फिर से विकास की बयार बहेगी तथा बेरोजगारी को दूर करने में कुछ हद तक मदद मिलेगी। लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा यदि सरकार इसके लिए अनुदान देती है। नकद राशि मिलने से बेरोजगार युवा खेतीबाड़ी करने के साथ ही पशु पालने में रुचि लेंगे। अन्यथा ग्रामीण क्षेत्र में यह स्थिति हो गई है कि लोगों को सब्जियां या दूध आदि का वितरण शहरों से हो रहा है। एक समय था जब ताजा शुद्ध दूध गांव-गांव से इकठ्ठा करके शहर ले जाया जाता था। फल व सब्जियां भी गांव से ही जाती थी। शहरवासी आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के उत्पादों को गुणवत्ता से परिपूर्ण मानते हुए बड़े चाव से उनका उपयोग करते थे। लेकिन अब परिस्थितियां विपरीत हो गई हैं। गांव के लोग भी शहर से लाए उत्पादों का बड़े चाव से सेवन कर रहे हैं। उसमें यह नहीं देख रहे हैं कि उनकी रसोई तक कितना खतरनाक कैमिकल पहुंच रहा है। एक समय था जब ग्रामीण स्तर पर कृषि एवं पशुपालन व्यवसाय एक दूसरे के पूरक थे। पहले पशुओं, विशेषकर बैलों के बिना खेतीबाड़ी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अब लोग इस काम में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। वैसे भी गांव में अब खेतीबाड़ी करना बहुत मुश्किल हो गया है। उपजाऊ जमीन विरान पड़ गई है। जहां खाली जगह है वहां जहरीला फुलणु घास व कंटीली झाडिय़ों के जंगल खड़े हो गए हैं। घासनियों में भी जहरीली घास फैल गई है। कुल मिलाकर जमीन बंजर हो गई है। अब गांव में जो इक्का-दुक्का परिवार खेतीबाड़ी कर रहे हैं, उन्हें जितना खर्च करना पड़ता है, उस हिसाब से फसल नहीं हो रही है। जंगली जानवरों एवं लावारिस पशुओं से फसल का बचाव करना मुश्किल है।
खेतों में सिंचाई की सुविधा न के बराबर होने के कारण किसानों को बारिश पर ही निर्भर रहना पड़ता है। मौसम की दगाबाजी ऐसी है कि, कभी सूखा पड़ता है तो कभी जरूरत से ज्यादा बारिश हो रही है। उससे फसल खराब हो रही है तथा सारे किए कराए पर पानी फिर जाता है। खेती करने में आ रही मुश्किलों से अधिकतर ग्रामीण अब खेतों के बजाय क्यारियों में ही साग-सब्जियां उगा रहे हैं। खेतीबाड़ी के न होने से पशुपालन का व्यवसाय भी नाममात्र का रह गया है। गांव में अब कोई विरला ही परिवार है, जिसने गाय या कोई भेड़-बकरी पाल रखी है। अन्य पशु अब लावारिस होकर सडक़ों पर भटक रहे हैं। पहले शहर में ही इक्का-दुक्का लावारिस पशु नजर आते थे, लेकिन अब गांव-गांव तक लावारिस पशुओं के झुंड घूमते देखे जा सकते हैं। ग्रामीणों को लग रहा है कि अब खेतीबाड़ी एवं पशुपालन बहुत ही घाटे का सौदा हो गया है। इन दोनों व्यवसायों में खर्च के मुताबिक आय नहीं हो रही है। सरकार भी इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। हलांकि केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि दिए जाने के बाद कृषि क्षेत्र में मामूली सुधार हुआ है। लेकिन इसके लिए और अधिक धनराशि की जरूरत है। यदि सरकार बैल पालने के लिए हर महीने प्रति जोड़ी 1500, गाय या भैंस पालने के लिए 750 रुपए मासिक तथा भेड़ व बकरी पालन के लिए 250 रुपए अनुदान दे, तभी कृषि के साथ ही पशुपालन व्यवसाय फिर से पनप पाएगा। इससे एक तो बेसहारा पशुओं की समस्या का हल होगा तथा दूसरे ग्रामीण क्षेत्रों में पहले की तरह कृषि उपज भी बढ़ेगी। ग्रामीणों को अपने गांवों में अच्छा अनाज, शुद्ध दूध-दही व घी के साथ ही फल व सब्जियां उपलब्ध होंगी। ग्रामीणों को अपने घरों में ही रोजगार उपलब्ध होगा। इससे हिमाचल सरकार को दूध व प्रस्तावित गोबर खरीदने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। पिछले करीब चार दशकों से ग्रामीण क्षेत्र में कृषि एवं पशुपालन व्यवसाय में जबरदस्त गिरावट आई है। एक समय था जब ग्रामीणों में यह कहावत ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, नखिद चाकरी करे गवार’ प्रचलित थी। अर्थात पहले खेतीबाड़ी को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। व्यापार को दूसरे स्थान तथा नौकरी को सबसे घटिया गिना जाता था। लेकिन अब स्थितियां इसके विपरीत हैं।
आज हर कोई सरकारी नौकरी पाना चाहता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि सरकारी क्षेत्र में कर्मचारियों के वेतन में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है तथा सेवानिवृत्ति के बाद पैंशन की सुविधा होने से उनका भविष्य सुरक्षित हो जाता है। दूसरी ओर उच्च शिक्षित एवं प्रशिक्षित युवाओं की संख्या में एकाएक वृद्धि हो रही है। ऐसे युवा जो सरकारी सेवा में नहीं जा सकते हैं, वे मजबूरी में कम वेतन पर निजी क्षेत्र में काम करते हैं। सरकारी एवं निजी क्षेत्र में यह सुविधा है कि हर महीने वेतन मिलता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में फसल अच्छी होने के बाद यदि उसका दाम ठीक मिले तो समझा जाता है कि कम से कम फसल पर जितना खर्च हुआ था, उसकी भरपाई हो गई। किसानों को दुधारू पशु या भेड़-बकरियां आदि के बिकने पर ही नकद पैसा मिल पाता है। किसानों द्वारा उगाई जाने वाली फसल भी उन्हें काफी महंगी पडऩे लगी। खाद, बीज एवं कीटनाशक दवाइयों की कीमतें आसमान छू रही हैं। खेतों की साफ-सफाई तथा हल जोताई आदि पर भी काफी खर्च हो जाता है। जबकि उससे कम कीमत पर अनाज एवं दालें आदि बाजार में मिल जाती हैं। अर्थात किसानों की उपज का भी उन्हें उचित मूल्य नहीं मिल पाता। कृषि के साथ बागवानी करने वालों के तो उनसे भी बुरे हाल हैं।
सब्जियों की तरह फलों का समर्थन मूल्य न के बराबर मिलता है। इसलिए लोग अपने फलों को विक्रय केन्द्र तक भी नहीं पहुचा पाते। कई स्थानों तक तो सम्पर्क सडक़ों का अभाव है। पशुपालन व्यवसाय की हालत बहुत खराब है। पहले कृषि के लिए बैल बहुत उपयोगी माने जाते थे। किसान उन्नत नस्ल के बैल पालने के बहुत शौकीन थे। कई किसान तो हरियाणा एवं पंजाब से बैल पालने को लाते थे। अनेक स्थानों पर पशु मंडियां लगती थी। बैलों व अन्य पशुओं की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती थी। उन्नत नस्ल के पशुपालकों को आयोजन समिति की ओर से प्रोत्साहन स्वरूप ईनाम भी दिए जाते थे। इस तरह दुधारू पशुओं की भी गांव में खासी संख्या होती थी। ग्रामीण कड़ी मशक्कत करते थे तथा घी-दूध भी खूब खाते थे। हर परिवार के पास बैल की जोड़ी, दो-तीन भैंसें, गाय व भेड़-बकरियां आदि पशु होते थे, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं।
रामलाल पाठक
स्वतंत्र लेखक
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