छिलकों की छाबड़ी : फटी अखबार पर मीडिया
अचानक उस पैसे वाले को लगा कि छवि चमकाने के लिए एक मीडिया हाउस खोलकर अखबार से लेकर डिजीटल माध्यम चला लेना चाहिए। पैसे वाले साहूकार ने इसलिए सलाहकारों का पैनल बनाकर एक दिन मीटिंग रख दी। राजनेता मित्र को बुलाया और पूछा आपको कैसा मीडिया चाहिए, तो उत्तर मिला, ‘राजनीति को अब मीडिया का बिछौना चाहिए, जिसे चिपका कर चुनाव प्रचार किया जा सके और जिसे बिछाकर सरकार चल सके। इसमें काफी किफायत और बरकत है। अगर अखबार को सियासत के जरिए बचे रहना है तो बिछना सीख ले।’ यह सुनकर अखबार बिफर गई। चुनावी रैली उसे बिछा कर खाना खा रही थी कि अखबार ने चालाकी में वहां से उडऩा मंजूर कर लिया। वह उड़ती-उड़ती चुनाव प्रचार कार्यालय लौट आई। यह देखते ही वहां पार्टी के एक कार्यकर्ता ने उसे जमीन से उठाया। ठीक से झाड़ा और प्रचार के लिए मिले नोटों की गड्डियों के इर्द गिर्द लपेट दिया। अखबार की सांस घुट रही थी। उसने नोटों से पूछा, ‘कहां से आए, कहां जा रहे हो।’ नोट कडक़ थे, अहंकार की अकड़ से भरे थे। उन्हें अखबार का इस तरह प्रश्न पूछना पसंद नहीं आया। कल इसी अखबार के पत्रकार ने चुनावी चंदा लिया था। वे नोट भी पूरे थे।
सारा साल मीडिया की रोजी-रोटी में चुनावी प्रचार होता है, तो बुरा नहीं लगता, मगर इसमें पैसे को लपेटने और बांटने के लिए गोपनीयता बरती, तो अखबार के पन्ने बोल पड़े। चुनावी फंड और अखबार की लड़ाई बढ़ गई, तो एक तरफ नेता थे, दूसरी तरफ मीडिया के मुगल थे। नेताओं ने डांटने के लहजे से दो टके की अखबारी रद्दी से पूछा, ‘है तेरी इतनी औकात कि चुनाव प्रचार के सारे खर्च को ढो पाए। तेरा तो हर शब्द बिका है, तेरा तो हर मर्म बिका है।’ अखबार की छाती से लिपटे नोट उसे दर्द दे रहे थे। वह जहां तक संभव था, लड़ती रही, चुनाव, चुनाव के धंधे में प्रचार और प्रचार में मीडिया के इस्तेमाल से। अंतत: वो फट गई, तो कार्यकर्ता के ‘हक’ के पैसे गिरते-गिरते बचे। उसने नोट बचाने के लिए अखबार को और नीचे गिराने के लिए धक्का दे दिया। फटी हुई अखबार का एक हिस्सा मालिक के चरणों में, दूसरा संपादक और तीसरा पत्रकारों के पास आकर गिरा। मालिक को अखबार का टुकड़ा गर्म लगा, संपादक को बेरहम लगा, जबकि पत्रकार यह तय नहीं कर पा रहा था कि अखबार ज्यादा ठंडी है या उसका किरदार। हर किसी को अपने-अपने हिस्से की सूचना मिली थी। मालिक को मिला टुकड़ा रंगीन था, लेकिन विज्ञापन की वजह से दीन था।
अखबार के इस टुकड़े में भी टुकड़े-टुकड़े विज्ञापन थे। ऐसे ज्योतिषियों के, जो मनमुटाव पर शादी तुड़ाने का यंत्र भेज सकते थे, राजनेताओं को चुनाव की टिकट और विरोधियों के छक्के छुड़ाने का विज्ञापन कर रहे थे। कोई क्रीम सारी कालिख मिटा कर सुंदर बना रही थी, तो साथ लगता विज्ञापन उचित वर ढूंढ कर ला रहा था। संपादक ने अपने हिस्से के टुकड़े को समझने के लिए पहले सामने रखे ‘रुह अफजाह शरबत’ का घूंट भरा, लेकिन खबर का मजा नहीं आया। पुन: मजे के लिए बाबा रामदेव का ‘रोज’ शरबत उस रोज भी उठा लिया। पीते ही संपादक की धडक़न तेज हो गई। उसने तुरंत अलोम-विलोम किया। फिर दंडवत मुद्रा में स्वीकार किया कि संपादक को भी बाबा हो जाना चाहिए। उसे बिना शीर्षासन चक्कर आ रहा था, क्योंकि अखबार के टुकड़े में एक और बाबा भी आंख दिखा रहा था। अखबार के उसी टुकड़े में उसे एक कोने में देश के दर्शन हुए। संपादक यह सोचने लगा कि वर्तमान माहौल में ज्यादा भयभीत कौन, वह या पूरा देश। अखबार का तीसरा टुकड़ा पाकर पत्रकार ऐंठ रहा था। उसमें उसे अपनी बाईलाइन दिखाई दे रही थी, लेकिन नीचे पूरी खबर पब्लिक रिलेशन विभाग की थी। अखबार की हालत देखकर वहां कुछ डिजीटल पत्रकार भी पहुंच गए। उन्हें लगा मालिक नया है, खाने-पीने का पूरा मौका देगा। मोबाइल के वीडियो मोड पर एक साथ कई डिजीटल पत्रकार चीख रहे थे, लेकिन किसी को भी यह पता नहीं था कि वे कर क्या रहे हैं। मीडिया में निवेश करने वाला व्यापारी सोचने लगा कि ये पत्रकारिता अब नाचने वालों का धंधा कैसे हो गई। उसने कोशिश की, लेकिन नाच नहीं पाया।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
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