देश को कमजोर करने वाली नीतियां
देश में कानून व्यवस्था के मामले में कर्नाटक नंबर वन है जबकि पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जो पुलिस, ज्यूडिशियरी, जरूरतमंदों को कानूनी मदद मुहैया कराने, कैदियों के लिए बेहतर इंतजाम के मोर्चे पर सबसे पिछले पायदान पर खड़ा है…
सत्ता में काबिज रहने के लिए आम लोगों की जान-माल से किस हद तक खिलवाड़ किया जा सकता है, इसका मौजूदा उदाहरण पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। पश्चिम बंगाल देश का ऐसा अकेला राज्य है जहां वक्फ बोर्ड के विरोध में हिंसा हुई है। वैसे देश के ज्यादातर राज्यों में इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन तक नहीं हुए। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ कानून के मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा में तीन लोगों की मौत हो गई। मुख्यमंत्री ममता ने हिंसा के बाद कहा है कि पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन कानून लागू नहीं होगा। ममता बनर्जी का कहना है कि यह कानून केंद्र सरकार ने बनाया है और उन्हीं से इसका जवाब मांगा जाना चाहिए। यह पहला मौका नहीं है जब ममता ने वोट बैंक की खातिर मुस्लिम प्रेम दर्शाया है। इससे पहले भी मुख्यमंत्री ममता सरेआम मुस्लिमों की हिमायत कर चुकी हैं। रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में भी ममता ने इसी तरह के प्रेम का इजहार किया था। ममता ने कहा था कि सभी रोहिंग्या आतंकवादी नहीं हैं, जबकि केंद्र सरकार ने संकटग्रस्त समुदाय को निर्वासित करने के अपने रुख पर कायम रहते हुए कहा था कि उनमें से कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी समूहों से जुड़े हुए हैं। तब भी ममता ने इनकी पैरवी करते हुए कहा था कि आतंकवादियों और आम लोगों के बीच अंतर होता है। हर समुदाय में अच्छे और बुरे लोग हो सकते हैं, लेकिन एक समुदाय, एक समुदाय होता है।
ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने प्रदेश में कानून व्यवस्था से खिलवाड़ करने वालों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह सख्त कार्रवाई करके जवाब नहीं दिया। यही वजह है कि ऐसे अराजक तत्वों के हौसले पश्चिम बंगाल में बुलंद हैं। पिछले वर्ष रामनवमी पर जुलूस के दौरान हिंसा भडक़ने से करीब दो दर्जन लोग घायल हो गए। इस मामले में भी पश्चिम बंगाल ही सबसे आगे रहा। लखनऊ में मामूली झड़प के अलावा हिंसा की ऐसी वारदातें देश के अन्य हिस्सों में नहीं हुर्इं। पश्चिम बंगाल में सरकार चाहे वामपंथियों की रही हो या अब ममता बनर्जी की हो, यह राज्य हिंसा के लिए अभिशप्त हो गया है। कारण भी स्पष्ट है, सारा संघर्ष सत्ता प्राप्ति का है। देश के ज्यादातर राज्यों में जहां चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न होते हैं, वहीं पश्चिम बंगाल का रिकार्ड हिंसा के कारण दागदार बन गया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनावों तक जम कर हिंसा होती रही है। पश्चिम बंगाल में वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों के बाद व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई, जब तृणमूल ने भाजपा को हराया था। पश्चिम बंगाल में विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद हिंसा में 12 लोगों की मौत हुई। वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के एक दिन बाद 5 जून को चुनाव बाद हिंसा की घटनाओं में भाजपा और माकपा समर्थकों को निशाना बनाया गया। दक्षिण में उत्तर 24 परगना जिले और दक्षिण 24 परगना तथा राज्य के जंगलमहल क्षेत्र के झारग्राम सहित कई जिलों में चुनाव बाद हिंसा की घटनाएं सामने आईं। पुलिस और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के जवान मौके पर पहुंचे, लेकिन सुरक्षा बलों के जाने के बाद उपद्रवी वापस लौट आए और इलाके में तोडफोड़ की। इसी तरह 8 जून 2023 को बंगाल में जिस दिन से पंचायत चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ, उसके बाद 15 लोगों की हत्या कर दी गई। वर्ष 2003 में जब यहां पंचायत चुनाव हुए थे, तब 76 लोगों की मौत हुई थी। इनमें से 40 से ज्यादा लोग तो वोटिंग वाले दिन मारे गए थे। वर्ष 2013 और 2018 के चुनाव के समय यहां केंद्रीय बलों की तैनाती भी हुई थी, बावजूद उसके हिंसा नहीं थमी थी।
बीते पांच दशकों में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में करीब 30 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा मौतें सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलन में हुईं। पश्चिम बंगाल में हिंसा का दौर 1960 के बाद शुरू हुआ। साल 1967 में राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार आई जिसने 2011 तक करीब 34 साल तक शासन किया। कम्युनिस्ट शासन के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा में 28 हजार लोग मारे गए। ममता बनर्जी के नेतृत्व में हुए नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन को पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस हिंसात्मक तरीके से दबाया वो कम्युनिस्ट सरकार की सत्ता के ताबूत में आखिरी कील साबित हुई और 34 साल की लेफ्ट सरकार का पतन हुआ। लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब सरकार बदलने के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पंचायत चुनाव हो या विधानसभा-लोकसभा चुनाव, पश्चिम बंगाल में हिंसा कम नहीं हुई। इस राज्य में अब बिना किसी चुनाव के भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमला आम बात हो गई है। पश्चिम बंगाल राजनीतिक और सांप्रदायिक हिंसा के लिए ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के लिए भी कुख्यात बन चुका है। जितनी बेशर्मी से भ्रष्टाचार और उस पर पर्दादारी इस राज्य में हुई है, उसकी मिसाल देश के दूसरे राज्यों में देखने को नहीं मिलती। टीएमसी के 19 नेताओं पर सीबीआई और ईडी की कार्रवाई चल रही है। शारदा घोटाले और नारद स्टिंग के खुलासे से तृणमूल कांग्रेस की खूब किरकिरी हुई। इसी तरह कोयला और मवेशी तस्करी, राशन घोटाले और सरकारी परियोजनाओं के लिए धन में से कट मनी लेने के आरोपों के बावजूद ममता बनर्जी के तेवरों में कमी नहीं आई। घोटालों की इस कड़ी में शिक्षा घोटाला सुर्खियों में है। चूंकि इसमें प्रदेश के हजारों बेरोजगार जुड़े हैं, इसलिए यह मामला ममता के गले की हड्डी बन गया है। अन्यथा जैसे अन्य घोटालों से ममता सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा, उसी तरह शिक्षा घोटाले पर नहीं पड़ता। कलकत्ता हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी के साथ 25000 शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की पूरी भर्ती प्रक्रिया रद्द कर दी। कोर्ट का कहना है कि घोटाले की जड़ें इतनी गहरी हैं कि दोषियों को निर्दोषों से अलग करना मुमकिन नहीं है। नौकरी गंवाने वाले टीचर इसके विरोध में सडक़ों पर उतर आए। मुख्यमंत्री ममता ने इस फैसले पर खुले तौर पर असहमति जताई। राज्य के शिक्षा मंत्री यहां तक कह गए कि अदालत के फैसले से प्रभावित सभी शिक्षकों को वेतन मिलेगा। मतलब स्पष्ट है कि वोट बैंक की राजनीति इतनी हावी है कि अदालत के निर्णय की अवहेलना करने से भी ममता सरकार को गुरेज नहीं है।
हिंसा और घोटाले ही पश्चिम बंगाल की पहचान नहीं बन चुके, बल्कि राज्य की सरकारी मशीनरी भी पूरी तरह जंग खा चुकी है। कोलकाता के आरजी अस्पताल में महिला चिकित्सक से बलात्कार के बाद हत्या इसका उदाहरण है। इस मामले में अदालत ने पुलिस कार्रवाई पर कड़ी टिप्पणी की। देश में कानून व्यवस्था के मामले में कर्नाटक नंबर वन है जबकि पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जो पुलिस, ज्यूडिशियरी, जरूरतमंदों को कानूनी मदद मुहैया कराने, कैदियों के लिए बेहतर इंतजाम के मोर्चे पर सबसे पिछले पायदान पर खड़ा है। यह बात इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में कही गई है। इसके बावजूद ममता सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। राज्य के हालात में सुधार के लिए कोई घोषणा तक नहीं की गई। बात-बात पर केंद्र सरकार से टकराहट मोल लेने की ममता की प्रवृत्ति इस बात की तरफ इशारा करती है कि पश्चिम बंगाल मानो कोई अलग देश है। राजनीतिक क्षुद्र स्वार्थों के लिए यदि ऐसी ही प्रवृत्ति दूसरे राज्यों की सरकारों ने भी अपना ली तो इस तरह का रवैया देश के संघीय ढांचे को कमजोर करेगा। बेहतर होगा कि ऐसी क्षेत्रीय समस्याओं का मिल-बैठ कर कानून के दायरे में समाधान ढूंढा जाना चाहिए। इस राज्य में शांति बहाली पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
योगेंद्र योगी
स्वतंत्र लेखक
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