पुलिसकर्मी की भूमिका का नूर

By: Apr 28th, 2025 12:02 am

पुलिस महकमे से पुलिस कर्मी के आंगन तक सुधार की गुंजाइश का एक नजरिया, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश से निकला है। माननीय अदालत ने पुलिस पहरे की शिनाख्त में श्रम की आरजू और श्रम की सीमा को रेखांकित किया है। कठिन ड्यूटी के मुकाम पर तैनात सिपाही के मानसिक तनाव, सतर्क निगहबानी का हिसाब और हर पल जवाबदेही का खिंचाव जिस समय से गुजरता है, उसके वक्त का कानूनी मानदंड तय हुआ है। न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान और सुशील कुकरेजा की खंडपीठ ने सरकार को पुलिस कर्मियों की सेवा शर्तों में सुधार लाने का आदेश ही नहीं दिया, बल्कि यह सुनिश्चित करने को कहा कि इनकी सेवाओं के बदले पैंतालीस दिन का अतिरिक्त वेतन मिले, आवास परियोजनाओं को गति मिले तथा पूरे करियर में कम से कम तीन पदोन्नतियां हर सूरत मिलें। अदालती आदेश से मानवीय पहलू रोशन होते हैं और जो सुधारों की पैरवी में एक नया अभियान खड़ा करते हैं। अदालत भीड़ में पुलिस वाले को देख रही है, वह ट्रैफिक नियंत्रण की स्थिति में उसे निहारते हुए यह देखती है कि किस तरह प्रदूषण के बीच उसकी जिम्मेदारी के हाथ, अपने ही फेफड़ों में जहरीली गैसों का उत्सर्जन भर रहे हैं।

कानून-व्यवस्था के रखवालों को कानून की शरण लेनी पड़ी, तो अदालत ने उनके हर तनाव और दबाव को बारीकी से देखा। इस तरह पुलिस प्रशासन के तहत पुलिस कर्मी के जीवन से जुड़े हर पहलू को ड्यूटी और फर्ज से संलग्र होने में मदद मिलेगी। यानी कल का पुलिस थाना, आज से भिन्न कैसे होगा और उसके भीतर सकारात्मकता के लिहाज से कौन से कदम प्रभावशाली होंगे। विधि व्यवस्था के लिए सबसे पहले हर नागरिक का बचाव और विश्वास पुलिस यूनिफार्म पर आता है। कहना न होगा के प्रदेश के किसी भी संकट के समय, राहत की तलब तब पूरी होती है जब सामने पुलिस व्यवस्था के तहत सतर्कता और बचाव की तैयारी गूंजती है। अंतत: हमारी सुरक्षा के सारे हाथ उसके हैं, जो कभी ट्रैफिक को चला रहा या कभी अपराध की तफतीश में जान लड़ा रहा है। उसके कत्र्तव्य क्षेत्र के फलक पर लोगों की चिंताएं, कानून की हिफाजत और व्यवस्था की छवि घूम रही है। अदालत के फैसले ने पुलिस महकमें का आत्मबल और उसकी भूमिका का नूर बढ़ाया है। कोई सिपाही न आर्डर को मना कर सकता और न ही ड्यूटी को फाइल बना कर पटक सकता है। होते होंगे बहुत सारे ऐसे विभाग जहां फाइलें घूंघट में काम करती हैं, लेकिन सिपाही हर ड्यूटी में एक मोर्चा है- एक तत्परता है। यह दीगर है कि विभागीय तौर तरीकों में इस महकमे में भी कत्र्तव्य की कई छननियां और जवाबदेही आलोच्य हो जाती है, लेकिन जब सिपाही की इकाई में मूल्यांकन होता है, तो प्रतिकूलता के कई दौर उसके भीतर तक चोट करते हैं। कर्नाटक, इलाहाबाद और कोलकाता जैसे हाई कोर्ट समय-समय पर पुलिस सुधारों के मानकों पर सुझाव देते रहे हैं, लेकिन इस बार हिमाचल उच्च न्यायालय ने मानवीय संवेदना के कई पहलुओं पर एक पुलिस कर्मी को उसका वांछित हक दिलाया है। इन स्पर्श के बिंदुओं पर पुलिस महकमा अपनी रूह से सवाल कर सकता है और राज्य की तस्वीर में कानून-व्यवस्था के मंतव्य की सफल परिभाषा में पुलिस कर्मियों को तोल सकता है। सरकार को आदेश देते फैसले ने पुलिस महकमे को देखने-समझने का दृष्टिकोण बदला है। ऐसी कुछ और प्राथमिकताएं सामने आनी चाहिएं जहां कोई कर्मचारी प्रतिकूल परिस्थितियों में नागरिक अपेक्षाओं को संतुष्ट करता है। जल व विद्युत आपूर्ति में लगे कर्मचारी या गंतव्य पर पहुंचाने वाले बस ड्राइवर-कंडक्टर भी इसी तरह अपने फर्ज की कैद में संवेदन हीनता का शिकार होते रहते हैं।


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