चोखे रंग की तलाश
जो गरिमा शब्द सेवानिवृत्ति में है, वह भला रिटायर कर देने या छुटकारा पा लेने में कहां? इसीलिए बड़े बूढ़े फरमा गए हैं, कि बेटा किसी को जहर भी देना हो तो मीठी गिल्लौरी में डाल कर देना, वह मजे से निगल जाएगा और रुखसत होते हुए उसके स्वाद की तारीफ भी कर देगा। अभी पिछले दिनों ऐसी ही एक वाहवाही इस आदेश ने लूट ली। बेकारी की समस्या की भीषणता से पूरा देश दो-चार हो रहा है। जनाब, लोगों ने अपने बच्चे कालेजों में पढ़ाने बंद कर दिए हैं और पढ़ाने के नाम पर आईलैट्स अकादमियों में डाल दिए हैं, कि वहां औपचारिक ग्रेड प्राप्त करने के बाद छोकरे विदेश निकल जाएं। सुना तो है सबने कि विदेशों में सोना बरसता है। छोकरा, छोकरी वहां मेहनत मजदूरी पा जाएंगे, तो इस देश के खिलंदड़ेपन और लक्ष्यहीन आवारगी से छुटकारा नहीं, निवृत्ति होगी। भारतीय रुपए के गिरते मूल्य की इतनी कृपा है कि अमरीका, इंग्लैंड में कमाया गया डालर या पाऊंड भारत में आ कर सत्तर से सौ गुणा कीमती हो जाता है। इंग्लैंड और अमरीका गया हमारा कामगार भारत का दौरा करता है तो उसकी परायी मुद्रा अपनी धरा की भारतीय मुद्रा में सत्तर से सौ गुणा हो जाती है। अमरीका का आम फहम भारत का लखपति, करोड़पति बन जाता है। यही तो भेद है कि आज के मसफूटते नौजवानों ने औपचारिक पारंपरिक शिक्षा से छुटकारा नहीं, निवृत्ति कहो, पा आईलैट्स का दामन थामा। एक विदेश की धरती की टिकट लगा गया। शेष बचे कतार में खड़े हैं। कहां कतार तो लगनी चाहिए थी, डिजिटल भारत, इंटरनैट भारत बनाने के लिए, नई शिक्षा प्रणाली के विद्या मंदिरों के बाहर, और कहां आजकल यह कतार लग रही है, वैध-अवैध मंत्र पढ़ कर देश की नई पीढ़ी को विदेशी धरती तक पहुंचाने के लिए? देश की अकादमियों में उचित ग्रेड दिलवाने के ठेके लग गए। शर्तिया विदेश पहुंचा देने के दाम घोषित हो गए। शिक्षा के नवीनीकरण के नाम पर उसका चेहरा ही बदल गया।
शायद साम, दाम, दंड, भेद का सिलेबस बन गया है कि आप का बच्चा सात समुद्र पार करवा दिया जाएगा। बस, फीस अग्रिम जमा करवा दीजिए। साब, ऊपर से नीचे तक रास्ता पार करवाने वालों की हथेलियां चुपडऩी पड़ती हैं। तब पार पत्रों का रास्ता हमवार होता है। यह रास्ता बनाने में पूरा परिवार जुटा है। अभी तक सभी यहां बैठे मनरेगा के आसरे जीने की बाट जोह रहे थे। घर का एक भी बशर किसी चोर दरवाजे से निकल गया, तो बाद में ‘बरसों से बैठा ठाला शेष’ परिवार इसे मुख्य द्वार बना इस धरती से उड़ान भर सकेगा। उनकी धरती पर उतर जाएगा। महोदय, हर युग का अपना-अपना प्रिय उद्योग होता है। इन दिनों यह उद्योग बना है देश की नई पीढ़ी को विदेश का रास्ता दिखाने का। ज्यों-ज्यों यह रास्ता खुल रहा है, त्यों-त्यों लगता है मुंबई का विरार का इलाका और दूसरे महानगरों के पिछवाड़े या भूख से सूखती हुई अंधेरी गलियां विदेश प्रयाण का रास्ता तलाश रही हैं। गांव के गांव खाली हो गए। युवक गए और पीछे रह गए गांवों के बड़े बूढ़े। इन युवकों के लिए क्या कहें? उन्होंने तो इस देश के अंधकूप से निवृत्ति पाई और पीछे छोड़ गए निस्तेज लोगों के लिए अपने साथ आ बसने का मुक्ति मार्ग। इसे इस धरती से छुटकारा पाना या पलायनवाद की मानसिकता न कहना, क्योंकि ऐसे कट ुशब्दों में अपने देश की अपंगता को नंगा कर देना शालीनता नहीं। अब जब हमें विदेश या शालीन देशों में खिसक ही जाना है, तो वहां की दोहरी जुबान और दोहरी मानसिकता को जीने का अंदाज भी सीख लेना चाहिए। अभी देखो न, दूसरी बानगी आजकल की इन चुनाव पटाऊ संध्याओं में भी मिलने लगी। अभी देश में इंटरनेट क्रांति हुई है। इसे कामयाब करने के लिए नौजवानों की भारी संख्या दरकार है, लेकिन दिक्कत यह है कि ये लोग डिजिटल काम सीखे नहीं। इसलिए फिलहाल ये लोग पकौड़े बेच सकते हैं।
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com
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