स्वाध्याय का अर्थ

बाबा हरदेव
गतांक से आगे…
आध्यात्मिक जगत में आत्मिक स्वाध्याय का अर्थ है, अपना अध्ययन स्वयं का अध्ययन, स्वयं का निरीक्षण, मानो साक्षी भाव। आत्मिक स्वाध्याय का मतलब है, हमारे भीतर जो चेतना का लोक (चेतना का तल) है, इसका निरीक्षण, इस लोक में ठहर कर देखना, चेतना का अवलोकन करना, इसका अध्ययन करना, इसके प्रति जागरूक होना क्योंकि चेतना के तल पर बहुत कुछ घट रहा है, विचार चल रहे हैं, स्मृतियां गतिमान हैं, कल्पनाएं उठ रही हैं, यानी भीतर बहुत भीड़-भाड़ है यहां सदैव कुंभ का मेला लगा हुआ है:
जिंदगी का साज भी क्या साज है
बज रहा है और बेआवाज है
अत: अगर स्वयं का निरीक्षण करना है, तो पहले मनुष्य के व्यक्तित्व का निरीक्षण करना होगा। अब मनुष्य के व्यक्तित्व को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा है ‘देह।’ सांसारिक दृष्टिकोण से देह का किसी हद तक अस्तित्व है, इसलिए किसी हद तक ये सत्य प्रतीत होती है। अत: विज्ञान देह की खोज है, पदार्थ की ही खोज है। दूसरा देह के बाद तल है ‘मन’ का। अब मन न तो सत्य है और न ही असत्य है। मन तो ‘आभास’ है। इसे मिथ्या कहा जा सकता है और मिथ्या का अर्थ होता है, जो सत्य जैसा भासे लेकिन सत्य हो न, जो है तो नहीं, लेकिन इसकी प्रतीति हो सकती है और जिस अर्थ में शरीर का अस्तित्व है, उस अर्थ में ‘मन’ का अस्तित्व नहीं है। तीसरा तल है ‘आत्मा’ का। अब जिस अर्थ में शरीर का अस्तित्व है, उस अर्थ में ‘आत्मा’ का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि शरीर का आकार है, जबकि आत्मा निराकार है। शरीर सगुण है, आत्मा निर्गुण है।
शरीर दिखाई पड़ता है, आत्मा देखने वाला है। मानो शरीर दृश्य है। आत्मा द्रष्टा है, इसलिए शरीर जिस अर्थ में है, आत्मा इस अर्थ में नहीं है, क्योंकि शरीर का विज्ञान बन सकता है, जबकि आत्मा विज्ञाता है। विज्ञान आत्मा को अस्वीकार करता है, क्योंकि विज्ञान की परिभाषा अस्तित्व की है और शरीर के द्वारा निर्धारित है, मगर आत्मा शरीर की भांति नहीं है। अब स्वयं के निरीक्षण के लिए जागरूकता अनिवार्य है, क्योंकि जागरूकता से किए गए निरीक्षण से बहुत बड़ी घटना घटित होती है। अत: अगर ‘मन’ का सम्यक, निरीक्षक किया जाए, सम्यक दर्शन किया जाए, तो मन तिरोहित होने लगता है और यही ‘आभास’ का लक्षण है कि जिसको ठीक देखने से जो तिरोहित होने लगे, वो ‘आभास’ था।
जैसे कई बार अंधेरे में ‘रस्सी’ भी ‘सांप’ दिखाई पड़ती है और अगर हम दीया ले आते हैं और इसी रस्सी को दीये की रोशनी में देखते हैं, तो यह सांप नजर आने वाली रस्सी अपनी असल शक्ल में नजर आने लगती है, क्योंकि इस सूरत में सांप का ‘आभास’ रोशनी के आते ही तिरोहित हो जाता है, विलीन हो जाता है। मानो हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि रस्सी में सांप नजर आना तो सिर्फ हमारी भ्रांति थी और जब रस्सी का निरीक्षण किया गया, तो फिर ये भ्रांति मर गई। ठीक ऐसे ही मनुष्य का मन एक इंद्रधनुष की तरह है। इंद्रधनुष आकाश और पृथ्वी को जोड़ता हुआ मालूम होता है, लेकिन अगर हम इंद्रधनुष को पकडऩे की चेष्टा करते हैं, तो केवल गीलापन ही हाथ आता है, क्योंकि वास्तविकता में इंद्रधनुष कुछ भी नहीं है, सिर्फ ‘आभास’ है। इसी प्रकार मन शरीर और आत्मा को जोड़ता हुआ प्रतीत होता है और जो व्यक्ति इस प्रतीति में ही डूब जाता है, उसे देहाभिमान पैदा हो जाता है, देहाभिमान का अर्थ अपने आपको देह ही समझने लग जाता है।
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