मां का फर्ज
मई का महीना शुरू होते ही मदर्स डे की याद आ जाती है। मां के रूप में अपने कत्र्तव्यों का पुनरावलोकन करने की स्थिति बार-बार मन में पैदा होती है। इस बार मई महीने में भी बार-बार मनहूस अप्रैल महीने की 22 तारीख को भूलने तो नहीं देगा, क्योंकि मदर्स डे पर उन माताओं पर क्या बीत रही होगी जिनके सामने उनके पतियों और उनके बच्चों के पिता को सरेआम आतंकवादियों द्वारा मार दिया गया। मन में सवाल तो जरूर आया होगा, माफ करना बच्चो, तुम्हारे पिता को मैं बचा नहीं पाई। बेशक मेरा बच्चा मानता है कि हर समस्या का समाधान मां तुम्हारे पास होता है तो इसका क्यों नहीं था? इन परिस्थितियों में अपने बच्चे को क्या समझाऊं कि मेरा नियंत्रण सिर्फ तुम्हारे बचपने तक तुम पर है, उसके बाद धीरे-धीरे मेरे नियंत्रण पर शतरंज के खेल की भांति समाज में फैले कई पियादे अपना पैर पसार देते हैं और वे सब शक्तियां एक मां को अपने-अपने तरीके से हराने में लग जाती हैं। वर्तमान स्थिति के अनुसार युवा होने से लेकर बुढ़ापे तक बच्चे के मानसिक विकास पर मां की पकड़ चाहते हुए भी स्वयं ही ढीली हो जाती है।
शुरुआत होती है परिवार के परिवेश के साथ जहां बच्चा ईश्वरीय आदेशानुसार जन्म लेता है और उस घर के संस्कारों के साथ उस बच्चे में भी संस्कार आते हैं, लेकिन घर की दहलीज से बाहर पांव रखते ही स्कूल में एडमिशन के समय दाखिला फार्म के माध्यम से उसका धर्म, जाति और भाषा पूछ ली जाती है। जब वो थोड़ा बड़ा होता है तो समाज और उसके आसपास का वातावरण भी इन प्रश्नों के उत्तर उससे जानना चाहता है। इस परिस्थिति में कुछ अनुयायी बच्चे सबसे पहले विशेषकर अपनी मां से जवाब पूछते हैं या अधिकतर तो इंटरनेट की दुनिया में घुसकर स्वयं ही इन प्रश्नों के बारे में अपना मत बना लेते हैं, जिसके कारण वे जल्दी ही संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह, यानी कि जहां लोग जानकारी की प्रस्तुति के तरीके के आधार पर निर्णय लेते हैं, न कि जानकारी की वास्तविक सामग्री के आधार पर मत बनाते हैं, के शिकार हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश इन स्थितियों में बच्चे अपनी मां से सीखने के बजाय उन्हें सिखाने में लग जाते हैं। मां चाहकर भी वर्तमान परिस्थितियों में उनके पूर्वाग्रहों के चक्रव्यूह से उन्हें निकालने में असफल दिखाई देती है। सोचिए कितनी बड़ी विडंबना है कि नौ महीने गर्भ में चल रहे बच्चे के अच्छे सुविचारों को सुनिश्चित करने के लिए हर मां ने भरसक प्रयास किया होगा और जन्म से लेकर लगभग 7 से 8 वर्ष तक उसके शारीरिक व मानसिक विकास के लिए भरसक कदम उठाए होंगे, लेकिन धीरे-धीरे युवावस्था की दहलीज पर सूचनाओं के चक्रवात में आकर वो अचानक मानसिक तौर पर आत्मनिर्भर हो जाए। इसे समझने की बहुत आवश्यकता है। लेकिन मां भी क्या करे? वो कौनसी जादू की छड़ी लेकर आए कि अपने बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास को स्वयं सुनिश्चित करे। बच्चे संचार माध्यमों के परतंत्र होते जा रहे हैं। माएं खुद मोर्चा संभाल कर इस परतंत्रता से बच्चों को बाहर निकालें।
डा. निधि शर्मा
स्वतंत्र लेखिका
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