उठे हैं मां के लाल…

By: May 20th, 2025 12:05 am

-गतांक से आगे…

मैंने सहमते हुए उनसे पूछा कि ऐसा भी क्या हो गया जो वह सरकार और मीडिया से इतना खफा हैं। वह मुझे घूरते हुए बोले, ‘क्या अब भी कोई कसर बाकी है? या तुम विष्ठा में लोटते हुए उसे खाकर ही मानोगे। मियां! याद रखना जिस समाज में सवाल पूछने की हिम्मत और कुव्वत, दोनों खत्म हो जाएं, उसे तबाह होने में देर नहीं लगती। तुमने कभी सोचा है कि हमारे देश ने सैंकड़ों साल विदेशियों की जूतियां क्यों चाटीं? वर्तमान में तुम जीते नहीं, इतिहास तुम्हें याद नहीं, ऐसे में तुम्हारा भविष्य क्या खाक होगा। अवतारों की कल्पना में जीते हुए तुम्हें यह भी याद नहीं रहता कि किसी शासक की अक्षमता, नाकाबिलियत, उदासीनता या लापरवाही पर कोई सवाल भी उठाना है। जब तुम्हारी पात्रता जागरूक प्रजा होने लायक ही नहीं तो तुम गुलामी में ही जिओगे और गुलामी में ही मरोगे। तुम्हारे जैसे भी हालात हों तुम्हें अपनी निबेडऩे में ही आनंद आता है। जब डर लगता है तो दूसरों का हाथ थाम कर अपना पक्ष सुरक्षित कर लेते हो और निरपेक्षता की चादर ओढ़ कर आगे बढ़ जाते हो। न कत्र्तव्य का बोध है और न अधिकारों की चिंता। रही बात सत्ताखोरों की तो भेड़ की खाल पहन कर भी भेडिय़े शिकार ही करते हैं। जिनके जिस्म की हर कोशिका में झूठ, नफरत, स्वार्थ और ढोंग भरा हो, उनसे भलाई की उम्मीद करना, धतूरे के पेड़ से आम के फल की उम्मीद करने जैसा है। जब राजा बहरूपिया हो और प्रजा का अपना कोई चेहरा न हो तो प्रजा राजा के पाखंडों में खुद को ढूंढते हुए या कुंभ के मेलों में गुम हो जाती है या भगदड़ में मारी जाती है।’ मैं उन्हें उन्हीं के अंदाज में घूरते हुए बोला, ‘भगवान विष्णु के नरसिहांवतार के बारे में इस तरह की टिप्पणी करना आपको शोभा नहीं देता।

अगर मैं डबल एंजिन वाले किसी राज्य के थाने में आपके खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करवा दूं तो उमर खालिद की तरह बिना किसी अपील, दलील या वकील के सालों जेल में सड़ते रहोगे। कोई अदालत, जज या वकील आपके केस की तरफ देखेगा भी नहीं। अमृत काल यह सुविधा उन सभी को उपलब्ध है जो कभी सत्ता से सवाल नहीं करते। राजा के रात को दिन कहने पर दिन कहते हैं और दिन को रात कहने पर रात कहते हैं।’ वह तिरछी नजरों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘वाह क्या बात है? पुरानी कहावत है कि कौआ कितना भी सयाना हो जाए, खाएगा तो विष्ठा ही। कौआ चाहे ऊंची से ऊंची डाल पर भी बैठा हो लेकिन जब बोलने के लिए मुंह खोलता है तो कांव-कांव ही करता है। उसे न अपने पद की गरिमा का खयाल होता है, न व्यक्तिगत अस्मिता का और न ही देश की प्रतिष्ठा का। उसका हर कदम सत्ता की हवस में लिपटा होता है।’ उनके तल्खी भरे शब्दों को देखते हुए मुझे लगा कि बेहतर है कि अब मैं उनसे धीमे स्वर में बात करूं। आक्रामक भीड़ में फंसा नेता जिस तरह मजबूरी में सौम्यता की चादर में लिपटने का स्वांग भरता है, उसी तरह अपने शब्दों को चासनी में डुबोते हुए मैंने पूछा कि आप पहलगाम हमले के बाद उपजे परिदृश्य को किस तरह देखते हैं? -(क्रमश:)

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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