हाशिए के बाहर छूटे लोग
वक्त बदल रहा है। जीवन में सच का महत्व कम और झूठ का महत्व अधिक होता जा रहा है। सफल वही है, जिसके व्यवहार में स्वाभाविकता कम और नाटकीयता अधिक हो। आदर्श, नैतिकता और मानवीय मूल्य ज्यों-ज्यों दैनिक व्यवहार से लुप्त होते जा रहे हैं, त्यों-त्यों उनकी श्लाघा बघारने वाले अधिक होते जा रहे हैं। अच्छा अभिनेता वह जिसे पर्दा स्क्रीन पर अपना किरदार निभाना आए या न, लेकिन पूरा दिन वह महसूस करे कि घर के बाहर बस यूं ही चलते हुए भी जैसे कैमरे की आंख उस पर लगी है। समय का निदेशक चिल्लाता है, ‘स्टार्ट’ तो वह चल देता है, और वह इशारा करे ‘कट’ तो मौन पसर जाता है। तब उसका जिंदगी में नेता, अभिनेता, समाज सुधारक अथवा धर्म प्रचारक बनने का अभिनय रुक जाता है। लेकिन समय का निदेशक संभवत: ‘कट’ कहना भूल जाता है, इसलिए नेता की नेतागिरी, अभिनेता का थोथा सुपरहीरो अभिनय, समाज सुधारक के लंबे प्रवचन, और धर्म प्रचारक की फालतू पोंगापंथी कभी रुकती नहीं। बनावट के इस परिवेश में जीते जी नेतागिरी से जनसेवा के स्थान पर स्वजन सेवा, अभिनय के स्थान पर केवल नकली हीरो का प्रपंच, भाषणों से लिपापुता समाज और भी रसातल को चला जाता है, और धर्म प्रचार में जातीयता तथा असहिष्णुता के कीटाणु पनप नया सच बन जाते हैं। वैसे अपनी सीमा तो यह है कि देश का रुतबा भुखमरी के सूचकांक में कुछ और नीचे उतर गया है। धन्ना सेठ खैरात संस्कृति को समाधान मान, भूखों में मुफ्त रोटी बांट अपनी सात पुश्तों के तरने की कल्पना करने लगते हैं और उधर काम के बिना भूख से तड़पता हुआ देश का भविष्य उसी अंधेरे में डूबा रहता है, जिसमें उसे सदियों से सिसकने की आदत हो गई है। अपने देश की संस्कृति की महानता बघारने की आदत हमें है, और कलाकार अपनी नुमायशें खुद लगाकर अपनी किताबें खुद छपवा कर अपने सम्मान समारोह आयोजित करके अपनी मौलिक राह पर चलने का साहस करने वाले कलाकारों को ‘जाति बाहर’ कर देने का फरमान सुना देते हैं। लो, इक्कीसवीं सदी का पांचवां हिस्सा गुजर गया।
सामाजिक कायाकल्प कर देने के लिए ‘मन की बात’ भी होती रहती है, लेकिन आदर्शों का ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा’ का बैंड बाजा उसी तरह कोलाहल करता रहेगा। चाहे उसके पिछवाड़े नारी समानता और नारी शक्तिकरण के नाम पर अपहरण और दुष्कर्म की घटनाएं अधिक क्रूरता की सीमा लांघ जाएं। नित्य नए गुडिय़ा कांड होते हैं और उनके अपराधी प्रत्यक्ष साक्ष्यों के बावजूद न्याय की चक्की में तारीख पर तारीख के बचाव मार्ग को अपनी उच्च कुलीनता की शाल की तरह ओढऩे का अभिनय करते रहे हैं। देश का लोकतंत्र अपनी पूर्ण गरिमा के साथ मुस्करा कर अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है, लेकिन क्या कारण है कि इसकी संसद और विधानसभाएं आज भी उन जननेताओं से भरी हैं, जिनके आपराधिक रिकार्ड सबको कुंठित कर देते हैं। लेकिन केवल आरोपित हो जाने से कोई अपराधी नहीं हो जाता है, कानून पटल हमें समझाता है। आरोपित को जब तक दंड न मिले, उसे अपराधी नहीं कहा जा सकता। अत: उसे समाज की बागडोर संभालने का पूरा हक है। अधिक से अधिक उसे अपने अपराधों के आरोपों का ब्यौरा सोशल मीडिया पर डालने के लिए मजबूर किया जा सकता है। लेकिन इस देश की पब्लिक सच कहती है कि इन बाहुबलियों को अपनाने के सिवाय उनके पास और कोई विकल्प ही कहां है, क्योंकि जो लोग जनसेवा के लिए अपनी जान खपा सकते थे, वे तो आर्थिक हाशिये के बाहर छूट गए। वे चुनाव लड़ेंगे तो अपनी जमानत जब्त करवा बैठेंगे। अत: जनता वही पुराने स्वर्ण सिद्धांत की तोता रटन्त करते हुए अपने मत पत्र ले एक वही अन्तहीन कतार में खड़ी हो जाती है, अरे, वही स्वर्ण सिद्धांत, ‘समरथ को नाहीं दोष गोसाईं।’
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com
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