एक चौथाई खुशी की तलाश
चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, कि मुझे बारिश में घूमना बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि इसमें मेरे चेहरे पर बहते हुए आंसू किसी को दिखाई नहीं देते। लेकिन आजकल अपने यहां लोगों को क्या अच्छा लगता है? सोचता हूं एक दिन में अच्छा लगने के अवसर खुशी से उछल पडऩे के मुकाम तलाश करने पर भी कहीं दिखाई नहीं देते। लोगों के तनावग्रस्त चेहरों से मुस्कराहट या हंसी लुप्त सी हो गई है। कहकहा लगा ठ_ा कर हंसने की तो बात ही छोड़ दीजिये। खोई हुई मुस्कराहटों की तलाश इस युग में एक अजनबी कर्म हो गया है। पहले लाल किले की प्राचीर से लेकर नेतागिरी के हर मंच से आम लोगों के लिए अच्छे दिन ला देने का वायदा सुनते रहते थे, तो दिल बल्लियों उछलने लगता, और चेहरे मुस्कराहटों से भरपूर। तरह-तरह के भेस बदल कर ऐसा वायदा आज भी दुहरा दिया जाता है, लेकिन यह आपकी ओर एक निर्जीव सी मुस्कराहट भी नहीं फेंक पाता। बालू की नींव पर खड़े किए जा रहे भवन जैसे वायदे आज सबको अजनबी लगते हैं। इस समय युद्ध का सिलसिला चल रहा है। इस सिलसिले में से आने वाले दिनों के लिए कोई मुस्कराहट कैसे तलाश लें। अच्छे दिन आने की उम्मीद कैसे सबकी पीठ थपथपा दे। गर्मी का मौसम और फिर बरसात का मौसम, इन दिनों में बीमारियां अधिक मारक होकर लौटती हैं। बुखार डेंगू बनकर लौटता है, या उसके साथ चिकनगुनिया जैसा सहोदर। अब इसमें क्या यह राहत महसूस कर लें कि यहां अस्पतालों या प्रयोगशालाओं में रोग की जांच घोषित प्रमाणित कीमत पर हो रही है, उस पर अधिक फीस का तावान नहीं लगाया जा रहा, लेकिन यह सच नहीं। आजकल तो सही फीस या उचित कीमत पर जांच हो जानी या उपचार का बंदोबस्त हो जाना बड़ी राहत तो हो सकता है, मुस्कराने की गुंजायश इससे नहीं दे सकता। जी नहीं, यह विसंगति भी नहीं मुस्कराती कि सरकार मुफ्त इलाज के लिए कार्ड बना रही है या योजनाएं चल रही हैं। उपचार और जांच की कीमत का नोटिस कुछ और ही कहता है। आपके हाथ में भुगतान के लिए बिल कहीं बड़ी राशि का आता है, परंतु बंधु, यह तो घर-घर की, शहर-शहर की बात है। अब तो इस सरेआम जेबतराशी पर किसी को रोना भी नहीं आता।
आंखें आंसू बहा-बहा कर सूख गई हैं। अब अपने आंसू भरे चेहरे को बरसती बरसात में छिपाने की भी जरूरत नहीं। मुस्कराहट की उम्मीद छोड़ो। बात इस गर्मी के बाद बरसात की होने लगी तो याद आता है, कभी आसमान में काले बादल घुमड़ कर आते थे, तो मन मयूर की तरह नाचने लगता था। नाचते मन के साथ बरबस ठहाके लगाने को जी चाहता। आसमान पर बादल घुमड़ कर ढोलक मंजीरे सा वाद्ययंत्र बजाने और इधर आपके मुस्कराते चेहरे बरबस अपनी हंसी से इसकी ताल देते। लेकिन आज बादल घुमड़ते हैं तो साथ मन मयूर सा कैसे नाचे? यहां तो बादलों ने ढोल मंजीरे बजाने का नहीं, फटने का आदाब सीख लिया। बादल घुमड़ा, परंतु पर्यावरण से प्रदूषित आसमान ने उसकी ताब लेने से इनकार कर दिया। बादल फटा, झंझावात और तूफान में बादल पागल प्रवाह सा साधारण लोगों की धरती पर मृत्युदूत बन बहने लगा। लोगों की जान और माल इसमें बहते जा रहे हैं और साथ ही बह गया इसका स्वागत अपनी खुशनुमा मुस्कराहटों से करने का इरादा। मांग और पूर्ति का असंतुलन और विदेशी दरवाजों पर आयात के लिए दस्तक देता देश इस एक-चौथाई मुस्कराहट को भी तो लौटा नहीं पाया। जरूरतों का पेट घटते उत्पादन और बढ़ती हुई मांग का असंतुलन भरने नहीं देता। एक-चौथाई मुस्कराहट की तलाश करते-करते यह तो एक-चौथाई रुदन ही पल्ले पड़ गया।
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com
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