धर्म, जाति, असमानता का संकट एक चेतावनी
धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचान के आधार पर समाज को बांटने की प्रक्रिया में हम उस साझा सांस्कृतिक धरोहर को खो देंगे जो भारत को विशेष बनाती है…
देश की आत्मा पर चोट करने वाले दृश्य आज बार-बार सामने आ रहे हैं। ‘वो मजहब पूछ कर मारता है’- यह वाक्य अब कोई प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नहीं रही, बल्कि भयावह यथार्थ बन चुकी है। एक ओर धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा बढ़ रही है, दूसरी ओर असंख्य ऐसी सामाजिक बुराइयां मौजूद हैं जो हर दिन देश के भीतर लोगों के स्वाभिमान की चुपचाप हत्या कर रही हैं। यह एक विचित्र युग है जहां हत्या करने वाला पहले यह पूछता है कि तुम किस धर्म के हो, फिर हथियार उठाता है। आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2024 में भारत में सांप्रदायिक दंगों में 84 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। वर्ष भर में 59 सांप्रदायिक घटनाएं हुईं, जिनमें 13 निर्दोष नागरिकों ने अपनी जान गंवाई। इनमें से अधिकांश घटनाएं धार्मिक त्योहारों या जुलूसों के दौरान उभरीं, जब भीड़ ने धर्म के नाम पर उन्माद का प्रदर्शन किया। इन दंगों के मुख्य केंद्र महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य रहे, जहां बार-बार धार्मिक भावनाओं को उकसाकर जनता के बीच नफरत बोई गई। भीड़ द्वारा हत्या के मामले भी चिंता का विषय बने हुए हैं। 2024 में भीड़ हिंसा के 13 मामले सामने आए, जिनमें 11 लोगों की मौत हो गई थी। इन हत्याओं में बहुलांश मुसलमान समुदाय से थे। गौहत्या के आरोप, अंतरधार्मिक विवाह के संदेह या धार्मिक प्रतीकों के आधार पर लोगों को पीट-पीट कर मार दिया गया। यह न केवल मानवता का अपमान है, बल्कि संविधान की आत्मा पर सीधा हमला है। लेकिन यह सिलसिला यहीं थमता नहीं है।
धर्म के अलावा भी अनेक ऐसी सामाजिक बुराइयां हैं जो प्रतिदिन लाखों लोगों के जीवन को यातना बना रही हैं। जातिगत भेदभाव आज भी भारतीय समाज के लिए कलंक बना हुआ है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों में 35 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी और 2024-25 में भी यह प्रवृत्ति कम होने का नाम नहीं ले रही है। हर दिन औसतन 158 मामले दलित उत्पीडऩ के दर्ज किए जाते हैं। अपमान, सार्वजनिक रूप से बेइज्जती, सामाजिक बहिष्कार, शारीरिक हमले और भूमि विवादों में भेदभाव जैसी घटनाएं उन नागरिकों के जीवन को जहरीला बना रही हैं जिन्हें भारतीय संविधान ने बराबरी का दर्जा देने का वादा किया था। सिर्फ जाति नहीं, आर्थिक असमानता भी लगातार बढ़ती जा रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2025 में भारत की बेरोजगारी दर 8.1 फीसदी रही। यह आंकड़ा महज एक प्रतिशत नहीं, बल्कि लाखों युवाओं के टूटे हुए सपनों का संकेत है। शिक्षित युवा बड़ी उम्मीदों के साथ डिग्रियां लेकर निकलते हैं, लेकिन उन्हें स्थायी नौकरियां नहीं मिलतीं। स्वरोजगार का प्रोत्साहन एक आकर्षक नारा बनकर रह गया है, जबकि धरातल पर रोजगार की अनुपलब्धता युवाओं में हताशा फैला रही है। बेरोजगारी न केवल आर्थिक त्रासदी है बल्कि मानसिक तनाव और सामाजिक अस्थिरता को भी जन्म देती है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 11 फीसदी वृद्धि हुई थी और यह सिलसिला 2024-25 में भी बरकरार है। बलात्कार, घरेलू हिंसा, दहेज हत्याएं, ऑनर किलिंग जैसे अपराध समाज की बर्बर मानसिकता को उजागर करते हैं। बाल विवाह, महिला भ्रूण हत्या और कार्यस्थलों पर यौन शोषण के मामले भी बड़े पैमाने पर सामने आते हैं। एक ऐसा देश जो नारीशक्ति की पूजा के आदर्शों पर गर्व करता है, वहां महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा की वास्तविक स्थिति बेहद निराशाजनक है। सामाजिक तनाव की स्थिति सिर्फ धार्मिक या जातिगत आधार पर ही नहीं बनी है। क्षेत्रीय अस्मिताओं और आर्थिक असमानताओं के कारण भी विद्रोह और हिंसा हो रही है। मणिपुर में मई 2023 से शुरू हुई जातीय हिंसा 2025 तक भी पूरी तरह से शांत नहीं हो पाई है। 258 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और 60000 से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं।
उत्तराखंड के हल्द्वानी में अवैध मदरसे के विध्वंस के बाद हिंसा भडक़ी जिसमें 6 लोगों की जान गई। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ अधिनियम संशोधन के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन हिंसक हो उठे और कई जानें गईं। इसी कड़ी में, हाल ही में अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने फिर एक बार देश को दहला दिया। इस हमले में निर्दोष तीर्थयात्रियों और सुरक्षाकर्मियों की जान गई। आतंकियों ने सुनियोजित तरीके से हमला किया, जिसका उद्देश्य न केवल जानमाल का नुकसान करना था, बल्कि देश के भीतर और अधिक धार्मिक और क्षेत्रीय तनाव फैलाना भी था। यह हमला इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि नफरत और हिंसा जब संगठित रूप लेती है, तो उसका परिणाम पूरे समाज को झकझोर देता है। ये घटनाएं इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि भारतीय समाज के भीतर कितना असंतोष दबा बैठा है जो किसी भी क्षण विस्फोटक रूप ले सकता है। सामाजिक मीडिया के माध्यम से अफवाहें फैलाकर नफरत का वातावरण बनाना अब बेहद सरल हो गया है। फेक न्यूज, एडिटेड वीडियो और भ्रामक सूचनाएं मिनटों में पूरे समाज को उग्र बना देती हैं। जिम्मेदारियों से विमुख मीडिया संस्थानों और राजनीतिक दलों द्वारा भी अक्सर ऐसा माहौल तैयार किया जाता है जिसमें धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के नाम पर जनता को बांट दिया जाता है। सत्ता की राजनीति आज भी धर्म और जाति की सीढ़ी चढक़र शिखर तक पहुंचने के खेल में लगी हुई है। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश के लिए यह बेहद खतरनाक संकेत हैं।
यदि हर छोटी असहमति को हिंसा में बदला जाएगा, यदि हर भिन्नता को दुश्मनी समझा जाएगा, यदि हर असहमति को गद्दारी कहा जाएगा, तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचान के आधार पर समाज को बांटने की प्रक्रिया में हम उस साझा सांस्कृतिक धरोहर को खो देंगे जो भारत को विशेष बनाती है। समाज के भीतर ऐसे भी कई समूह, संस्थाएं और व्यक्तित्व सक्रिय हैं जो इन विकृत प्रवृत्तियों का प्रतिकार कर रहे हैं। वे प्रेम, भाईचारे और सामाजिक न्याय के आदर्शों की पुनस्र्थापना में जुटे हुए हैं। लेकिन जब तक समाज का बड़ा हिस्सा मौन रहेगा, तब तक नफरत का विष फैलता रहेगा। यह समय है कि हर नागरिक स्वयं से सवाल करे कि वह किस भारत का सपना देखता है? क्या उसे इज्जत चाहिए या नफरत?
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App or iOS App