मन को बचाना सबसे महत्त्वपूर्ण

By: May 24th, 2025 12:25 am

श्रीश्री रवि शंकर

हर कार्य में कुछ न कुछ दोष है। दान देने में भी, कभी-कभी हम दूसरों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाते हैं। इसलिए भावनाओं में पूर्णता, वाणी में पूर्णता और क्रिया में पूर्णता असंभव है, सभी प्रकार की पूर्णता एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। विनम्रता आत्मा और अस्तित्व की पूर्णता है, जबकि क्रोध और गुस्सा अस्तित्व की विकृति है…

क्या आपने कभी सोचा है, कि अगर सब कुछ ईश्वर है और सब कुछ प्रेम है, तो संसार में अपूर्णता/कमी सी क्यों लगती है? इसका कारण है प्रेम में छिपी हुई छह विकृतियां क्रोध, वासना, लोभ, ईष्र्या, अहंकार और भ्रम। ये विकृतियां सृष्टि में स्वाभाविक रूप से वर्तमान हैं, लेकिन केवल मानव जीवन में इन विकृतियों से बाहर निकलकर शुद्ध प्रेम की स्थिति को पाया जा सकता है। आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य इन विकृतियों से मुक्त होकर पूर्णता की स्थिति में जाना ही है। सिद्धि तीन प्रकार की होती है क्रिया में सिद्धि, वाणी में सिद्धि और भावनाओं में सिद्धि। हालांकि यह एक दुर्लभ स्थिति है, पर इसे प्राप्त किया जा सकता है। कोई भी कार्य कभी भी पूर्ण रूप से ठीक नहीं हो सकता। कुछ न कुछ कमी अवश्य रह जाती है, चाहे वह तत्काल दिखे या बाद में। जब भावनाएं अशुद्ध होती हैं, तो वे अधिक समय तक रहती हैं और फिर वे आपको भीतर से स्थिर नहीं रहने देती हैं।

हम अकसर एक विकृति से दूसरी विकृति की ओर बढ़ते हैं। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति लालची होता है या दूसरों पर अन्याय करता है, तो हम उसके स्वभाव पर क्रोधित हो जाते हैं। लेकिन इस प्रकार, हम केवल अपूर्णता की ओर बढ़ते हैं। विकृतियों में बदलाव कभी भी पूर्णता नहीं लाता। वासना क्रोध में बदल जाती है, क्रोध ईष्र्या, लालच, अहंकार या भ्रम में। इस प्रकार हम एक अपूर्णता से दूसरी अपूर्णता की ओर बढ़ते जाते हैं। मन को बचाना सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए हर कृत्य को एक घटना के रूप में देखना चाहिए, जो कुछ नियमों के आधीन हैं। जब आप कृत्यों में अपूर्णता देखें, तो उसे अपने दिल में प्रवेश न करने दें। इस तरह, आप विकृतियों को बढऩे से रोक सकते हैं।

वाणी की अपूर्णता को समझना महत्त्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए जब मां अपने बच्चे को ‘दफा हो जा’ कहती है, तो उसका वास्तविक मतलब कुछ और होता है। अगर आप इस वाणी के पीछे की मंशा को समझते हैं, तो आप अपनी भावनाओं की शुद्धि को बचाए रख पाएंगे। हर कार्य में कुछ न कुछ दोष है। दान देने में भी, कभी-कभी हम दूसरों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाते हैं। इसलिए भावनाओं में पूर्णता, वाणी में पूर्णता और क्रिया में पूर्णता असंभव है, सभी प्रकार की पूर्णता एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। विनम्रता, आत्मा और अस्तित्व की पूर्णता है, जबकि क्रोध और गुस्सा अस्तित्व की विकृति है। इसलिए हर स्थिति में हमें अपनी आंतरिक संपूर्णता को बनाए रखते हुए, विकृतियों से ऊपर उठने की कोशिश करनी चाहिए। इस प्रक्रिया में, हम न केवल अपनी आंतरिक दुनिया को संतुलित रखते हैं, बल्कि बाहरी संसार की अपूर्णताओं के बावजूद भी अपनी उच्चतम स्थिति में रहते हैं। यही है जीवन की सच्ची पूर्णता, मन, वाणी और क्रिया में संतुलन और शांति बनाए रखना।


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