बुढ़ापे की पीड़ा
मनुष्य का जीवन मुख्यत: चार स्थितियों से गुजरता है। बचपन मस्त होता है तथा बुढ़ापा कष्टप्रद होता है। किशोरावस्था के बाद युवावस्था और प्रौढ़ावस्था कहीं खुशी कहीं गम में उलझी रहती है। बचपन से किशोरावस्था तक के सफर में माता-पिता एवं गुरुजनों से जीवन जीने की सीख लेते हैं। अपने से बड़ों तथा बुजुर्गों से किस आदरभाव से बात करनी है, सिखाया जाता है। व्यावहारिक आचार-विचार के साथ शैक्षणिक शिक्षा भी इसी आयु में प्राप्त की जाती है। युवावस्था के साथ ही जीवनयापन के लिए रोजगार की तलाश की जाती है ताकि पैसा कमाकर अपने परिवार के लिए और अधिक सुख-सुविधाएं जुटा सकें। युवावस्था में ही मनुष्य वैवाहिक बंधन में बंध जाता है। उसके बच्चे होने के बाद परिवार बढ़ जाते हैं तथा खर्च में भी बढ़ोतरी हो जाती है। इसके साथ ही पारिवारिक जिम्मेदरियां भी बढ़ जाती हैं। इस बीच उसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तथा उनकी अच्छी परवरिश में अपना सारा ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। इसलिए उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। हर मां-बाप यही सोचता है कि उसकी संतान अपने पैरों पर खड़ी हो तथा बढ़ापे में उनका सहारा बने। उम्र ढल जाने पर बुढ़ापे में शारीरिक कष्ट बढऩे लगता है। जीवनभर कड़ी मेहनत से अपना एवं अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाला व्यक्ति जब 60 वर्ष की आयु पार कर लेता है, तब उसका शरीर भी जवाब देने लगता है। कई बीमारियां उसे घेरने लगती हंै। तब उसे दो जून की रोटी के साथ दवा-दारू की भी आवश्यकता रहती है। कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ हो, उसे गुजारे लायक पैंशन मिल जाती है लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवनभर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से अपने घर में चूल्हा जलाया है, उसका बुढ़ापा भी अत्यंत कठिनाई से गुजरता है।
उसे जरूरत की हर छोटी बड़ी चीज के लिए दूसरे पर ही निर्भर होना पड़ता है। यदि बेटे सरकारी नौकरी पर हों तथा संस्कारी हों तो उनके बुजुर्ग माता-पिता को कोई ज्यादा कठिनाई नहीं होती। उनका बुढ़ापा आसानी से कट जाता है, लेकिन जिनके बेटे सरकारी नौकरी पर नहीं होते, उन्हें बढ़ापे में अपनी जिंदगी बोझ लगने लगती है। बेटे बेरोजगार हों तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं। बेटे का अपना परिवार होता है। उसे अपना घर चलाना मुश्किल हो जाता है। उसका अपने बुजुर्गों की अपेक्षा अपने बच्चों पर अधिक ध्यान होता है। ऐसी स्थिति में बुजुर्गों की नजरें सरकार की ओर लगी रहती हंै। वर्तमान में समय बहुत तेजी से बदल रहा है। संयुक्त परिवार टूटते-टूटते एकल परिवार बन गए। आत्मीयता के रिश्ते कमजोर होने लगे हैं। एकल परिवार में अब पति-पत्नी और बेटा-बेटी चार सदस्य होते हैं। किसी के दो बेटे होते हैं तो किसी के दो ही बेटियां होती हैं। माता-पिता की प्राथमिकता उनके अपने बच्चे होते हैं, बुजुर्ग नहीं। ऐसी स्थिति में उन्हें बुजुर्ग अखरने लगते हैं। उनकी हर बात बुरी लगने लगती है। ऐसे में यदि किसी घर में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त बूढ़ा या बूढ़ी है, तब वे जैसे-तैसे अपना गुजारा कर लेते हैं। यदि बुजुर्ग एक ही जिंदा हो तो वह अपने को अकेला महसूस करता है। उसे सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा पैंशन कम मिलती है। इस पैंशन को बढ़ाने की सख्त जरूरत है।
रामलाल पाठक
स्वतंत्र लेखक
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