आध्यात्मिकता की जननी

By: Jul 5th, 2025 12:25 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

जिसके निकट इंद्रिय सुख ही जीवन का एकमात्र सुख है, ऐसे लोगों के लिए भारत सर्वदा ही एक बड़े मरुस्थल के समान प्रतीत होगा। जहां की आंधी का एक झोंका ही उनके कल्पित जीवन विकास की धारणा के लिए मानों मृत्यु स्वरूप है। किंतु जिन व्यक्तियों की जीवन तृष्णा इंद्रिय जगत में सुदूर स्थित, अमृत सरिता के दिव्य सलिल पान से संपूर्णत: बुझ चुकी है। जिनकी आत्मा ने सर्प के त्याग की तरह काम, कांचन और यश स्पृहा के त्रिविध बंधनों को दूर फेंक दिया है जिनका मन शांति की अत्युच्च शिखा पर पहुंच गया है और जो वहां से इंद्रियभोगों में आबद्ध तथा नीचजनोचित कलह, विषाद और द्वेष-हिंसा में रत व्यक्तियों को प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखते हैं जिनके संचित पूर्व सत्कर्म के प्रभाव से आंखों के सामने से अज्ञान का आवरण लुप्त हो गया है, जिससे वे असार नामरूप को भेदकर प्रकृत सत्य का दर्शन करने में समर्थ हुए हैं। ऐसे व्यक्ति कहीं भी क्यों न रहें, आध्यात्मिकता की जननी एवं अनंत खानस्वरूप भारतवर्ष उनके समक्ष भिन्न रूप से अधिक महिमान्वित और उज्ज्वल भाषित होगा। इस मायावी जगत में जो एकमात्र प्रकृत सत्ता है, उसके अनुसंधान में रत प्रत्येक व्यक्ति के लिए भारतवर्ष आशा की एक प्रज्वलित शिखा है।

अधिकांश मनुष्य शक्ति को उसी समय शक्ति समझते हैं जब वह उनके अनुभव के योग्य होकर स्थूलाकर में उनके सामने प्रकट हो जाती है। उनकी दृष्टि में समरांगण में तलवारों की झनझनाहट आदि की खूब स्पष्टत: प्रत्यक्ष शक्ति के विकास मालूम होते हैं और जो आंधी की भांति सामने से चीजों को तोड़-मोड़ कर उथल-पुथल पैदा कर देती हो, वह उनकी चेष्टा दृष्टि में शब्दों का विकास नहीं है, वह तो मानों जीवन का परिचायक न होकर मृत्यु स्वरूप है। इसीलिए शताब्दियों से विदेशियों द्वारा शासित एवं निश्रेष्ट, एकताहीन एवं देशभक्ति शून्य भारतवर्ष उनके निकट ऐसा प्रतीत होगा मानो वह गलित अस्थिचर्मों से ढकी हुई भूमि मात्र हो। ऐसा कहा जाता है योग्यतम ही जीवन संग्राम में विजयी होता है। तब फिर प्रश्र उठता है कि साधारण धारणानुसार यह जो जाति अन्य जातियों की अपेक्षा नितांत अयोग्य है, दारुण जातीय दुर्भाग्य चक्र में फंस जाने पर भी उसके विनाश का कोई चिन्ह दिखाई क्यों नहीं देता?

तथाकथित वीर्यशील और कर्मपरायण जातियों की वृद्धि शक्ति जिस प्रकार एक ओर प्रतिदिन कम होती जा रही है, उसी प्रकार दूसरी ओर दुनीतिपरायण हिंदुओं की परायण शक्ति का विकास सर्वापेक्षा अधिक हो रहा है। यह किस प्रकार होता है?

जो लोग एक पल में समस्त विश्व को रक्तरंजित कर सकते हैं, उनके लिए तारीफ की झड़ी लग सकती है, जो लोग कुछ लाख लोगों के सुख के लिए संसार के अधिकांश लोगों को भूखा मार सकते हैं, वे भी गौरवशाली हो सकते हैं। किंतु जो लोग अन्य लोगों का अन्न न छीनकर लाखों मनुष्यों को सुख और शांति प्रदान करते हैं, वे क्या किसी प्रकार का सम्मान प्राप्त करने योग्य नहीं हैं? शताब्दियों से दूसरों के ऊपर किसी भी प्रकार का अत्याचार न करके लाखों के भाग्य का संचालन करने वालों के कार्य में क्या किसी प्रकार की शक्ति का विकास प्रकट नहीं होता। सभी प्राचीन जातियों के ग्रंथों में उनके वीरों की गाथाओं में यह देखा जाता है कि उनका प्राण उनके शरीर के किसी विशेष छोटे से अंश में आबद्ध रहा था और जब तक उनका यह अंश अस्पृष्ट रहा, तब तक वे अजेय रहे। – क्रमश:


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