भक्ति और श्रद्धा का संगम पंढरपुर यात्रा

महाराष्ट्र के सबसे आध्यात्मिक रूप से महत्त्वपूर्ण आयोजनों में से एक है पंढरपुर की सदियों पुरानी तीर्थयात्रा। पंढरपुर यात्रा का हिंदुओं में काफी महत्त्व है। पंढरपुर वारी सिर्फ एक तीर्थयात्रा नहीं है यह समानता, प्रतिबद्धता और सौहार्द का जीवंत उत्सव है। यह सभी क्षेत्रों के हजारों अनुयायियों को एकजुट होकर चलने, भगवान के नाम का उच्चारण करने और सेवा, विनम्रता और प्रेम के सिद्धांतों को दोहराने के लिए एकजुट करता है। पिछले 800 वर्षों से महाराष्ट्र के पंढरपुर में आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी के पावन अवसर पर इस महायात्रा का आयोजन होता आ रहा है। इसे ‘वैष्णवजनों का कुंभ’ कहा जाता है। देशभर में ऐसी कई यात्राओं के अवसर होते हैं और हर एक यात्रा की अपनी विशेषता होती है। पंढरपुर की यात्रा आजकल आषाढ़ में तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को होती है। देवशयनी और देवोत्थान एकादशी को वारकरी संप्रदाय के लोग यहां यात्रा करने के लिए आते हैं। यात्रा को ही ‘वारी देना’ कहते हैं। प्रत्येक वर्ष देवशयनी एकादशी के मौके पर पंढरपुर में लाखों लोग भगवान वि_ल और रुकमणि की महापूजा देखने के लिए एकत्रित होते हैं।
भक्तराज पुंडलिक-6वीं सदी में संत पुंडलिक हुए, जो माता-पिता के परम भक्त थे। उनके इष्टदेव श्रीकृष्ण थे। उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन श्रीकृष्ण रुकमणि के साथ प्रकट हो गए। तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, ‘पुंडलिक’ हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं। पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा और कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन:पैर दबाने में लीन हो गए। भगवान ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोडक़र ईंटों पर खड़े हो गए। ईंट पर खड़े होने के कारण श्री वि_ल के विग्रह रूप में भगवान की लोकप्रियता हो गई। यही स्थान पंढरपुर कहलाया, जो महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ है। पुंडलिक को वारकरी संप्रदाय का ऐतिहासिक संस्थापक भी माना जाता है, जो भगवान वि_ल की पूजा करते हैं।
पंढरपुर मंदिर-महाराष्ट्र के पंढरपुर में स्थित यह मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। यहां श्रीकृष्ण को विठोबा कहते हैं। इसीलिए इसे विठोबा मंदिर भी कहा जाता है। यह हिंदू मंदिर वि_ल-रुकमणि मंदिर के रूप में जाना जाता है। यह भगवान विठोबा की पूजा का मुख्य केंद्र है, जिनकी पत्नी रखुमई है। यह महाराष्ट्र का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। सभी भक्तों को भगवान विठोबा की मूर्ति के पैर छूने की अनुमति है। पंढरपुर तीर्थ की स्थापना 11वीं शताब्दी में हुई थी। मुख्य मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में देवगिरि के यादव शासकों द्वारा कराया गया था। मंदिर में प्रवेश करते समय द्वार के समीप भक्त चोखामेला की समाधि है। प्रथम सीढ़ी पर ही नामदेवजी की समाधि है। द्वार के एक ओर अखा भक्ति की मूर्ति है। निज मंदिर के घेरे में ही रुकमणिजी, बलरामजी, सत्यभामा, जांबवती तथा श्रीराधा के मंदिर हैं। चंद्रभागा के पार श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक है। 3 मील दूर एक गांव में जनाबाई का मंदिर है और वह चक्की है, जिसे भगवान ने चलाया था। कहते हैं कि विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध नरेश कृष्णदेव विठोबा की मूर्ति को अपने राज्य में ले गए थे, किंतु बाद में एक बार फिर इसे एक महाराष्ट्रीय भक्त वापस ले आया और पुन:यहां स्थापित कर दिया।
यात्रा में क्या होता है खास-भगवान वि_ल को सम्मानित करने के लिए महाराष्ट्र के पंढरपुर की यात्रा की जाती है। इसमें संत की पादुका को पालकी में ले जाना शामिल है। खास तौर पर ज्ञानेश्वर और तुकाराम की। जो उनके संबंधित स्थानों से पंढरपुर तक जाती है। कई वारकरी पैदल इस पालकी में शामिल होते हैं। माना जाता है कि यह परंपरा 700- 800 साल से भी ज्यादा पुरानी है। चंद्रभागा नदी में स्नान कर परिक्रमा पूरी- पंढरपुर पहुंचकर चंद्रभागा नदी में स्नान कर परिक्रमा पूरी की जाती है। पुंडलिका वरदा हरि वि_ल, वि_ल-वि_ल जय हरि वि_ल नाम का जाप किया जाता है। फिर एकादशी की दोपहर को श्री राधारानी के साथ वि_ल और रुकमणि की मूर्तियों का जुलूस निकाला जाता है। पूरा उत्सव आषाढ़ शुद्ध पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है, जिसे ‘गोपालकला’ भी कहा जाता है। मेला और यात्रा-यहां हर वर्ष आषाढ़ी मेला लगता है। लोग दूर-दूर से यात्रा करते हुए यहां आते हैं। भगवान वि_ल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका, डिंडी लेकर इस तीर्थ स्थल पर लोग पैदल चल कर पहुंचते हैं। जब से वारी आरंभ हुई है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के लोग हर साल वारी के लिए निकलते हैं। आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का मकसद सामने रखकर उसके अंतर के अनुसार हर पालकी का अपना सफर का कार्यक्रम तय होता है।
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