विश्वास : कहानी की तलाश में हिमाचल

सृजन प्रक्रिया
कहानी ‘विश्वास’ के पीछे लिखने का आधार
जब भी कोई लेखक किसी रचना का सृजन करता है तो उसके पीछे कोई न कोई आधार अवश्य होता है और मेरा तो कबीर की, ‘तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखन देखी’ तर्ज पर संपूर्ण साहित्य रचा गया है। प्रस्तुत कहानी का आधार – मेरे घर में एक विद्यार्थी रहता था, उसे अचानक ही पैसे की जरूरत पड़ी और वह मेरे पर विश्वास कर रात के दस बजे पैसे उधार मांगने आ गया। परिवार के सभी सदस्य उसे पैसे देने के हक में नहीं थे, परंतु मैंने उस पर विश्वास कर पैसे दे दिए। समय पर वह नहीं लौटा पाया, परंतु देर सवेर उसने लौटा ही दिए, मेरे विश्वास को कोई आंच नहीं आने दी। इसी पर आधारित कल्पना का श्रृंगार करके यह कहानी गढ़ी गई है।
कहानी की तलाश में हिमाचल
यहां कहानी पलकें खोलकर मुस्कराना चाहती है। इसकी पाजेब में बजते घुंघरू, कई मौन-कई सन्नाटे तोडऩे का प्रयास कर रहे हैं। कई घरौंदे, कई समाज और कई शिकवे-शिकायतों का हुजूम। कभी किसी दूब पर दूर से आती छटा, शब्दों को भावों में पिरोती हवा। एक स्पर्श कहीं दीप में बुझती बाती को सहला रहा, तो कहीं क्रंदन किसी महफिल के रोमांच में अनसुना रह गया। हिमाचल का कहानीकार, समाज के रंगमंच पर वर्षों से श्रम साधना करता हुआ, अभिव्यक्ति के नजराने पेश कर रहा। ‘हिमाचली हिंदी कहानी – विकास यात्रा’ की 106 किस्तों के बाद कहानी अपने शृंगार में सीधे पाठकों तक। हर कहानी की पृष्ठभूमि, उसकी संरचना, कथानक, विषय, पात्र, उद्देश्य, भाषा और शैली के साथ एक पूरा रचना संसार शिरकत कर रहा है। एक अपनापन या अपनों से रूठा मन, पहाड़ की गवाहियों में खड़े उदास मंजर या किसी झरने के पास प्यासी नदी का स्पंदन। जीवन की तलाश में कहानी का सफर कहां पहुंचा, इसी बिंदु पर विवेचन की परंपरा के हिमाचली हस्ताक्षर खोज कर ला रहे हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र राजन। पेश है आज पांचवीं किस्त :
डा. गंगाराम राजी
मो.-9418001224
कहानी/भाग-1
पत्नी के बार-बार समझाने पर भी न समझ पाना और लोगों द्वारा ठगे जाते रहना अब एक आदत सी बनती जा रही थी। क्या करें दूसरों पर विश्वास करना मेरी संस्कृति का एक अध्याय ही बन गया था। परंतु वर्तमान में आदमी इतना बदल गया है यह सोच भी नहीं सकता था। आदमी में जितनी ज्ञान की वृद्धि हुई है, वह उतनी परतों में जीना भी सीख गया है। और हम जैसे पुराने लोगों का आदमी के अंदर तक जाना संभव ही नहीं हो पा रहा है। इस अवसर पर अज्ञेय की सांप कविता का ख्याल जरूर आ जाता है। सोचता रहता हूं कि मुझे भी समाज के साथ चलना चाहिए। फिर ख्याल आता है कि अगर इसी तरह से समाज चलता रहे तो समाज तो गिरता ही रहेगा। आज फिर ठगा गया। घर में फिर से एक गर्म सा माहौल हो गया। बच्चे नाराज, पत्नी नाराज, अब तो वह सामान्य होने के लिए भी बहुत दिन लगा लेगी। मैं अपने काम में व्यस्त था। तभी मेरे कानों में पत्नी की आवाज पड़ी, ‘‘सुन रहे हो …’’ ‘‘ जी … सुन रहा हूं …’’ ‘‘ श्याम लाल आपसे मिलने आया है …।’’
श्याम लाल नाम सुनकर मैं सोच में पड़ गया। कौन श्याम लाल? मेरे से क्या काम? रात के आठ बज रहे हैं … इस समय …आदि आदि। फिर ख्याल आया कि श्याम लाल किराएदार लडक़ा जो हमारे यहां दो साल से रह रहा है। वही श्याम लाल होगा। ‘‘ अंदर ही भेज दो न …’’ अंदर क्या भेज दो, पत्नी भी उसके पीछे पीछे आ गई और हाथ से इशारा इनकार के लिए करते जा रही थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मामला क्या है … क्या इशारा कर रही है …। ‘‘सर नमस्कार … सर मुझे पैंतीस सौ रुपए चाहिए अभी इसी समय …। ’’ अब मेरी समझ में आ गया था कि पत्नी क्यों इनकार कर रही है। मैं तो अब और सोच में पड़ गया। आज मेरे पास पैसे भी थे। इसे कैसे पता चल पड़ा कि मेरे पास पैसे रखे हैं। इसको क्यों चाहिए। मैंने पूछ ही लिया, ‘‘क्यों चाहिए पैसे?’’ ‘‘सर मेरा मोटर साइकिल मिस्त्री ने रोक रखा है, मैंने उसके पैसे देने थे। घर भी फोन किया तो इस समय वे मेरे अकाउंट में पैसा नहीं डाल सकते। सुबह मैं आपको ग्यारह बजे दे दूंगा …’’ लंबी सी कहानी उसने मुझे सुना दी। पीछे पत्नी इनकार के लिए हाथ हिला रही थी। तभी बड़े वाला लडक़ा भी पीछे आ गया, वह भी अपनी गर्दन से इनकार करने का इशारा कर रहा था। श्याम लाल मांगने के लिए प्रार्थना करता गया, पीछे दोनों के इशारे इनकार करते गए। तभी बहू जो किचन में व्यस्त थी वह भी अपने पति के पीछे खड़े होकर इनकार करने लगी। श्याम लाल याचना करता गया और मैं सोचने पर मजबूर होने लगा, घर के सभी सदस्यों का एक ही निर्णय और मैं…। मुझे लगा कि मुझे इस लडक़े को पैसे दे देने चाहिए। हमेशा ही काम आता रहता है।
घर के काम को सब उसे दौड़ाते रहते हैं। दो वर्ष तक हम सबकी सेवा करता रहा है। उसे कैसे इनकार करूं? सोच में पड़ गया। उसकी जरूरत को जांचने के लिए मैंने उससे पूछा, ‘‘ किस मकैनिक के पास तेरा मोटर साइकिल है? मेरी बात उससे करा …। ’’ उसने झट से अपना मोबाइल निकाला और मकैनिक को मिला दिया। उससे बात करने पर मुझे तसल्ली हो गई कि श्याम लाल ठीक ही बोल रहा है। उधर देखूं तो तीनों मेरी ओर देख रहे थे कि मैं श्याम लाल को पैसे के लिए हां करता हूं या न … अरे यह लडक़ा इतने विश्वास से मेरे पास आया है, वह हम लोगों के अतिरिक्त कहां जाता …दो साल से मेरी सेवा कर रहा है … कहीं मुझे ठग तो नहीं रहा है…घर के तीनों सदस्य एक ओर हो गए थे, मैं दुविधा में हो गया था। कभी मैं श्याम लाल को देख रहा था, कभी अपने तीन सदस्यों को जो मेरी ओर आतुरता से देख रहे थे …मुझे न जाने क्या हुआ, मैं अपने को रोक न सका। मैं उठा और झट से अंदर जाकर अपने पर्स से पैसे निकाल कर उसे दे दिए। मेरे तीनों सदस्य मेरी ओर घूर कर देख कर इधर-उधर हो लिए। श्याम लाल ने मेरे पांव छुए, ‘‘ सर कल ग्यारह बजे मैं …।’’ ‘‘ठीक है कल ग्यारह बजे दे देना, मैंने भी किसी को देने हैं…गौड बलैस यू …। ’’
उसने एक बार फिर मेरे पांव छुए। वह तो चला गया, परंतु मैं अपने तीनों सदस्यों से मिलने नहीं गया। मजौरटी के विरुद्ध मेरा फैसला था, अपने कमरे में चला आया। पत्नी से रहा नहीं गया, थोड़ी ही देर में मेरे कमरे में आई, ‘‘जब मैं पीछे से इनकार कर रही थी तो पैसे क्यों दिए?’’ पत्नी के तेवर चढ़े हुए थे। मैं घबराने लगा था। इन सदस्यों का मुकाबला करना मेरे लिए कठिन था। तभी बहू भी अपने पति को लेकर आ गई। ‘‘ डैडी आप मानते ही नहीं … इसने इन पैसों की शराब पीनी है …। ’’ ‘‘ आप अपनी मनमानी करने लगे हैं …’’, बेटे ने कहा। मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा। मैं कुछ अध्ययन कर रहा था। पुस्तक सामने रखी, पर देखने लगा ध्यान भटक चुका था। मैंने किसी को कुछ जवाब नहीं दिया तो पत्नी बोली, ‘‘ आप बोलते क्यों नहीं हैं …क्यों ठगे जाते हो हमेशा ही इस तरह से। अभी राशन वाले के पैसे देने हैं। बस वही पैसे निकाल रखे थे। क्या करूं मेरी ही लापरवाही हो गई जो उसे देने में देरी हो गई … अगर पैसे नहीं आए तो सारा बजट …। ’’ मैंने कहा, ‘‘ जरा शांत हो जाओ …. यह लडक़ा कितने विश्वास से मेरे पास आया था। मैं इसके विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था। पैसे तो अब मैंने दे दिए हैं, अब डिनर का इंतजाम करो मुझे भूख लगी है …।’’ मैं मुस्कराने की कोशिश करते हुए नेकी पर एक भाषण भी देने लगा तो वह बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘आप कब सुधरोगे … हमेशा ही इस तरह से चेले चांटों से ठगे जाते रहे हो। यह आज की बात नहीं है, याद है दिल्ली की…’’ मैं भूल गया था। आज जब एक झटका और लगा तो दिल्ली की तीस साल पुरानी बात याद आ गई। जब भी इस तरह की घटना वर्तमान में हो जाती तो पत्नी उसे याद दिला लेती। ‘बात पिछली शताब्दी के आठवें दशक की है, अभी बच्चे पांचवीं और सातवीं में पढ़ते थे। बच्चे दिल्ली के बारे कई प्रश्न करते थे।
एक बार उन्हें अपने समय की फिल्म ‘अभी दिल्ली दूर नहीं’ दिखाई। फिल्म इसलिए दिखाई थी कि इस फिल्म में सारी दिल्ली को दिखाया गया था। इस फिल्म से उन्हें दिल्ली का ज्ञान हो जाए और उन्हें दिल्ली घर में ही बैठ कर दिख जाए। परंतु इस फिल्म का असर उल्टा ही हुआ, बच्चे छुट्टियां होने पर दिल्ली को देखने की जिद्द करने लगे थे। और फिर क्या, छुट्टियां होते ही देश की राजधानी दिल्ली बच्चों को दिखाने के लिए दिल्ली चले गए। चिडिय़ाघर के बस स्टाप पर स्कूटर का इंतजार कर रहे थे। तभी एक दंपति हमारे सामने आ खड़ा हुआ। ‘‘सर मेरी जेब कट गई है, सब पैसा लेकर चोर चले गए हैं, मुझे पता ही नहीं चला … ’’, उस आदमी ने अपनी कटी हुई जेब मुझे दिखाते हुए कहा। मैंने उस पर एक नजर डाली। वह बड़े ही दीन भाव से मेरी ओर देख रहा था। साथ में उसकी पत्नी तो इस तरह से खड़ी हम दोनों को देख रही थी, उसकी आंखें बरसने वाली थीं। कभी वह मेरी ओर देखती, कभी वह मेरी पत्नी की ओर। हमारे बच्चे भी उन दोनों की ओर देखने लगे थे। बच्चों ने हम दोनों को पकड़ लिया था और उन्हें देखी जा रहे थे। ‘‘आपकी जेब कटी और आपको पता ही नहीं चला …। ’’ ‘‘ आप ठीक कह रहे हैं, हमें पता चलता तो हम चोर को पकड़ लेते। मुझे तो तब पता चला जब मैं टिकट के लिए पैसे निकालने लगा। पैसे न होने पर कंडक्टर ने हमें इस बस स्टाप पर उतार दिया।’’ ‘‘ हम आए थे दिल्ली घूमने, अब तो हम सीधे घर जाएंगे, परंतु अब तो लग रहा है कि कैसे घर पहुंचें….।’’ साथ खड़ी उसकी पत्नी ने मेरी पत्नी की ओर देख कर कहा। ‘‘ मैं पेशे से स्कूल मास्टर हूं। मेरे घर का जाने का किराया पचास रुपए के पास है। आप हमें एक सौ रुपए उधार दे दें , मुझे अपना एड्रैस दे दो, मैं आपको मनीऑर्डर करके भेज दूंगा …।’’ बस स्टाप पर खड़े दूसरे लोग हमारी बातों को सुन तो रहे थे, परंतु कन्नी काट रहे थे और देख रहे थे कि हम पर क्या असर होने लगा है। जिनकी बस आती गई, वे बस पर बैठ जाते गए।
जब उसने अपना परिचय मास्टर का दिया तो मेरे मन में उसके प्रति सहानुभूति जाग गई। स्वयं भी तो मास्टर हूं, एक मास्टर को ठग दिया गया। मन में कई विचार उठने लगे थे। मैंने पत्नी, अपने वित्त मंत्री की ओर इशारा कर पूछा तो उसने देश के वित्त मंत्री की तरह नजरें इधर-उधर कर लीं। ‘‘भाई साहब सौ रुपए की बात है, हम जाते ही आपको भेज देंगे प्लीज़ … यह मेरा पता है। आप मुझे अपना पता दें।’’ उसने कागज के टुकड़े पर अपना पता मुझे दे दिया। लगता था कि उसने पहले ही अपना पता लिख कर रखा हो। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। ख्याल आया कि चलो सौ रुपए की बात है, इसे दे दिया जाए। उन दिनों सौ रुपए भारी रकम थी। उन दिनों मुझे दो सौ पचास रुपए वेतन मिलता था। तभी एक स्कूटर वाला वहां आ गया। बच्चे स्कूटर पर बैठने के लिए उतारू थे। पत्नी बच्चों के साथ स्कूटर पर बैठ गई थी। वह मेरी ओर बड़ी आतुरता से आग्रह करने लगा। उसकी पत्नी ने तो मुझे पकड़ ही लिया कि कहीं मैं उन्हें कुछ दिए बगैर ही स्कूटर पर न बैठ जाऊं। और मैंने जल्दी से उसे अपना पता लिखवाया, दो पचास-पचास के नोट उसे थमा दिए और मैं स्कूटर पर बैठ गया। मास्टर और उसकी पत्नी की आशीषें मेरे कानों में गूंजती रही। याद आने पर आज भी गूंज जाती हंै। साथ में पत्नी के ताने भी याद हो जाते हैं। घर पहुंच कर मैं रोज डाकिए को मनीआर्डर के लिए पूछता। कुछ दिन के बाद तो यह हो गया था कि डाकिया मुझे देखते ही कह जाता कि आपका कोई मनीआर्डर नहीं। अब ख्याल आता है कि वे पत्नी-पति दोनों इसी काम के लिए लोगों को ठगने निकल जाते होंगे, कभी एक बस स्टाप पर तो कभी दूसरे पर, क्योंकि मेरा एक दोस्त भी इसी तरह से ठगा गया था। शाम तक यह दंपति कुछ न कुछ तो पैसे इक_े कर ही लेते होंगे। आगे इस दंपति की जो संतान होगी वह क्या करेगी, वह भी तो इसी ध्ंाधे में लगेगी। इस बात को हुए आज तीस वर्ष होने लगे हैं, इन ठगों की एक पीढ़ी तो तैयार हो ही गई होगी, अब अगली पीढ़ी की तैयारी है।
-(शेष भाग अगले अंक में)
टिप्पणियां
सामाजिक सरोकारों में मानवीय संवेदना की तलाश
मुरारी शर्मा
मो.-9418025190
गंगाराम राजी अपने समय और समाज के बीच से कहानी का तानाबाना बुनने वाले समर्थ रचनाकार हैं। हालांकि बतौर उपन्यासकार गंगाराम राजी भले ही ऐतिहासिक घटनाओं, कथानकों एवं चरित्रों को आधार बनाकर औपन्यासिक कृति की रचना करते हैं। लेकिन बतौर कहानीकार उनका नजरिया अलग रहता है। ऐसे में गंगाराम राजी यर्थाथवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए आमजन को अपनी कहानियों का किरदार बनाते हैं जिनसे हमारा रोज का मिलना-जुलना होता है और वे बड़ी सादगी से आसपास की घटनाओं को कहानी के सांचे में ढाल देते हैं। इससे पाठक को लगता है कि ये कहानी और किरदार तो मेरा अपना है…इसे तो मैंने देखा है, पर इस रूप में नहीं जिस रूप में कहानीकार ने इसे प्रस्तुत किया है। कथाकार गंगाराम राजी की विश्वास कहानी को भी यथार्थ के उसी धरातल पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह कहानी भी उसी कथालोक के धरातल पर खड़ी नजर आती है। विश्वास कहानी में लेखक को कहानी के पात्र ढूंढने के लिए कल्पनालोक में विचरण नहीं करना पड़ता है। बल्कि कहानी का पात्र उनके पास स्वयं चलकर आता है और विद्यार्थी के रूप में उनके घर पर रहते हुए ही उनसे पैसे उधार लेकर उनके विश्वास को कसौटी पर कसने की कोशिश करता है। परिवार द्वारा मना करने के बावजूद उसे पैसे दे देना विश्वास ही तो है। हालांकि, समाज द्वारा बार-बार ठगे जाने के बाद भी उस मासूम जरूरतमंद पर भरोसा करना अपने भीतर की संवेदना को जिंदा रखना ही तो है। और कहीं न कहीं लेखक के भीतर अपनी स्मृतियों की पटकथा का उभरना भी है…इस उम्र में एक विद्यार्थी की जरूरत के समय की गई मदद उसकी आने वाली जिंदगी का संबल भी तो बन सकती है। तभी तो पत्नी के मना करने के बावजूद उस छात्र को पैसे दे देना लेखक का सामाजिक सरोकारों में संवेदना की तलाश को दर्शाता है। कहानी का यही पक्ष गंगाराम राजी की इस कहानी को सशक्त बनाता है।
विश्वास की मुस्कान
डा. विद्यानिधि छाबड़ा
मो.- 9816343517
जिंदगी आज चाहे जैसी भी हो, छल-कपट और अविश्वास से भरी, गंगाराम राजी की कहानियों की जो एक बात सबको आकृष्ट करती है, वह उनकी सकारात्मक दृष्टि। वास्तविकता दुखद है, आज अन्याय का बोलबाला है, सच हारता है और झूठ फलता-फूलता है। इसके बावजूद लेखक की जिद है कि इनसान में दूसरे इनसान के प्रति प्रेम और विश्वास बना रहे। इसी सोच की परिणति इस कहानी में है। गंगाराम राजी की दूसरी खासियत जो पाठकों को आकृष्ट करती है, वह है उनकी भाषा की संवादशीलता। वह सरल लिखते हैं और पाठक को झट अपना मित्र बना लेते हैं, उसके साथ समस्या का समाधान भी खोजते हैं और उसके सामने अपनी कमजोरियां भी रख देते हैं। तीसरी खासियत है उनकी लेखन-शैली की मुस्कान, जो हास-परिहास में ही तीखा व्यंग्य कर जाती है, जैसे, ‘मैंने अपनी पत्नी, अपनी वित्त मंत्री से पूछा तो उसने देश की वित्त मंत्री की तरह नजरें इधर उधर कर ली।’ राजी जी की कहानियों में बस एक बात है जो थोड़ा अखरती है, वह है उनका दोहराव। शायद उन्हें लगता है कि एक बार में बात समझ नहीं आएगी, इसलिए वह अपनी बात बार बार दोहराते हैं जिससे वह हर पाठक में अपनी कहानियों के माध्यम से मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकें।
आदर्शवाद व यथार्थवाद का मिश्रण है यह कहानी
प्रियंवदा शर्मा
मो.-9418615941
कोई कल्पना गढऩा, फिर कौतूहल के साथ उसे वर्णित करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। कहानी कहने और सुनने की परंपरा भारतीय समाज में काफी पुरानी है। एक विचार जब मन में कौधता है तो वह कथ्य का अवधान कर कहानी की पहली सीढ़ी बन जाता है। यहीं से कथानक की उत्पत्ति होती है जो तय करता है कि प्रस्तुत करना क्या है? फिर शिल्प निर्धारित करता है कि इसे पेश कैसे किया जाना है। तत्पश्चात अनिवार्य होता है चरित्र चित्रण और वातावरण से संरचित विचार, मनुष्य की आकांक्षाओं और समस्याओं को अभिव्यक्ति प्रदान करना। प्रेमचंद युग में कहानी लेखन को जो निश्चित स्वरूप प्राप्त हुआ वह चरित्र, वातावरण, कथानक और कार्य प्रधान कहानियों की यात्रा करता रहा। धीरे-धीरे कहानी की कई शैलियां जैसे वर्णनात्मक, आत्मचरितात्मक, पत्र और डायरी आदि विकसित हुई। इस तरह हिंदी कहानी में समयानुसार नए तत्वों का मिश्रण होता रहा और कहानी का ढांचा बदलता रहा। कहानी लेखन की परंपरा को बढ़ाती कहानीकार गंगाराम राजी जी की कहानी आदर्शवाद और यथार्थवाद का मिश्रण परोसती है। कहानीकार ने अपने चिरपरिचित अंदाज की चुटीली भाषा शैली का प्रयोग कर कथानक का बड़े सलीके से निर्वहन किया है।
लेखक ने अपनी कहानी ‘विश्वास’ के शीर्षक को चरितार्थ करने के लिए कहानीकार सुदर्शन की प्रसिद्ध कहानी ‘हार की जीत’ के किरदार बाबा भारती और डाकू खडग़ सिंह का उदाहरण देकर अपनी कहानी को प्राणदान देने का सफल प्रयास किया है। दिल्ली में हुई घटना का स्मरण हो आना लेखक के लेखन को ही यथार्थता से जोडऩे में सफल नहीं रहा, बल्कि पाठक के मन में भी उनके साथ हुई ठगी की घटनाओं को याद दिलाने में सफल हुआ है। किसी कहानी को पढक़र जब पाठक उसमें समानुभूति का अनुभव करने लगता है तो लेखन सार्थक हो जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य का आकलन कर यदि कहानी को पढ़ा जाए तो नि:संदेह कहना होगा एक समय की बात है। कहानी का पात्र श्यामलाल जो इस कहानी के विषय का केन्द्र बिन्दु है, वह वर्तमान पीढ़ी का प्रतिनिधित्व तो नहीं कर पाया, परंतु लेखक को कहानी का ताना-बाना बुनने में सहायक बना है। परिवार के सदस्यों का लेखक को पैसे देने से इंकार करना और लेखक का मानसिक द्वंद्व बेहतरीन ढंग से मुहावरेदार भाषा शैली में लेखक ने प्रस्तुत किया है। साथ ही पत्नी के साथ हुई नोकझोंक को सहज शैली में प्रस्तुत कर लेखक पाठक को बांधने में सफल हुए हैं।
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