अष्टावक्र महागीता

धर्माऽधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो।

न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।

अष्टावक्र राजा जनक को विभो (सर्वव्यापी, सर्वात्मा) का संबोधन देते हुए कहते हैं कि हे विभो! धर्म-अधर्म, सुख-दुख तो मन के लिए हैं, तेरे लिए नहीं। क्योंंकि न तो तू कर्ता है और न ही भोक्ता। तू तो सदैव ही मुक्त है, स्वतंत्र है, बंधन रहित है। राजा जनक को विभो कहने के पीछे अष्टावक्र का उद्देश्य यही था कि जनक की जड़ ग्रंथियों को विच्छेदन हो जाए और वास्तविक निजरूप स्पष्ट हो जाए। किसी प्रकार का संशय शेष न रहे। अष्टावक्र आगे कहते हैं कि हे जनक! धर्म-अधर्म व सुख-दुख मन के हैं। अर्थात क्या करने से सुख प्राप्त होगा और क्या करने से दुख प्राप्त होगा। ऐसे सकंल्प-विकल्प तो मन के हैं। मन में ही ऐसे संकल्प-विकल्प तरंगों की भांति उठा करते हैं और फिर शांत हो जाते हैं, लेकिन तू तो स्वतंत्र है, असीम है, सर्वगत, सर्वव्यापी है, बंधनरहित है। आत्मा से सब एक हैं। भेद तो शरीरगत है। तभी तो अज्ञानीजन ‘तेरा-मेरा’ का राग अलापा करते हैं। वे जानते कि सूक्ष्म तत्त्व आत्मा सब में एक ही है। ‘तेरा-मेरा’ तो प्रपंच मात्र है।