एशिया का सबसे ऊंचा पुल है कंदरौर में

गोबिंद सागर झील का क्षेत्रफल 168 वर्ग किलोमीटर है। झील पर निर्मित एशिया का सबसे ऊंचा पुल ‘कंदरौर’ नामक स्थल पर है। यह झील मछली उत्पादन का एक बड़ा स्रोत है। यह झील सतलुज नदी पर बने भाखड़ा बांध के निर्माण से 1959 में बनी…

बनावटी झीलें

हिमाचल प्रदेश में तीन मुख्य बनावटी झीलें हैं, जिनका आर्थिक रूप से प्रदेश के विकास में विशेष योगदान है।

गोबिंद सागर

इनमें सबसे बड़ी और लंबी बिलासपुर जिला में (जो भाखड़ा बांध के बनने के कारण बनी है) सलाहपड़ तथा भाखड़ा गांवों के मध्य 88 किलोमीटर के लगभग लंबी गोबिंद सागर झील है। इसका नाम गोबिंद सागर सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह के नाम पर रखा गया है, क्योंकि इस झील के किनारे के जंगलों से गुरु ने औरगंजेब के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध लड़े थे। इस झील का क्षेत्रफल 168 वर्ग किलोमीटर है। झील पर निर्मित एशिया का सबसे ऊंचा पुल ‘कंदरौर’ नामक स्थल पर है। यह झील मछली उत्पादन का एक बड़ा स्रोत है। यह झील सतलुज नदी पर बने भाखड़ा बांध के निर्माण से 1959 में बनी। झील के संग्रहित जल से ‘गंगूवाल’ व कोटला नामक स्थलों पर पावर हाउस का निर्माण हुआ है।

पौंग झील

यह कांगड़ा जिला के पुराने पौंग गांव में बने पौंग बांध के कारण देहरा और पौंग बांध के मध्य  है,जिसकी लंबाई 42 किलोमीटर के लगभग है। सन् 1960 में भारत सरकार ने राजस्थान राज्य में भूमि सिंचाई और पीने के लिए पानी पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पौंग बांध बनाने की योजना तैयार की थी, क्योंकि भारतवर्ष में केवल मात्र यही एक ऐसा राज्य था, जो एक-एक बूंद पानी के लिए तड़पता था। लाखों एकड़ भूमि सिंचाई के बिना सदियों से बंजर चली आ रही है। इस पौंग बांध के अधीन आए जिला कांगड़ा के देहरा उपमंडल के हलदून घाटी के 223 गांवों  के 25 हजार परिवारों ने अपनी 30729 हेक्टेयर पुश्तैनी भूमि में लहराते खेत एवं मकान, बांध निर्माण के लिए प्रदान कर राष्ट्र निर्माण में बहुमूल्य योगदान दिया है और इन आंकड़ों को केंद्रीय सिंचाई व विद्युत मंत्री की अध्यक्षता में 14 दिसंबर, 1968 को हुई बैठक में हिमाचल, राजस्थान व हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने भी सही करार दिया था। बांध निर्माण तक जिला कांगड़ा पंजाब का हिस्सा था और इसके अंतर्गत देहरा उपमंडल की हलदून घाटी की भूमि में इतनी ज्यादा अनाज की पैदावार थी, जो कि पूरे हिमाचल के लिए काफी थी, परंतु इसके बदले सरकार ने नाममात्र ही मुआवजे की राशि दी थी, इससे उस समय के उजड़े हुए विस्थापित आज तक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सके हैं।