गायब होती इनसानियत

( राजकुंवर, मलकेहड़, पालमपुर )

क्या आज हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि एक तड़पते हुए इनसान को अस्पताल तक नहीं पहुंचा सकते या किसी मुसीबत में फंसे हुए इनसान की मदद नहीं कर सकते? क्या हमारे पास किसी दूसरे इनसान की मदद करने का समय ही नहीं बचा है? जब ऐसे वाक्य सामने आते हैं, तो शर्म महसूस होती है कि देवभूमि हिमाचल में भी देश के दूसरे राज्यों या बड़े शहरों की तरह इनसानियत दफन हो चुकी है। आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, जब हम मूक दर्शक बने खड़े रहते हैं, मदद नहीं करते। क्या हम एक मुसीबत में फंसे इनसान की मदद नहीं कर सकते? क्या हम वास्तव में इतने लाचार हैं?  ऐसी क्या विडंबना है कि हमें सिर्फ अपने आप से ही ताल्लुक रह गया है, दूसरों के दुख-दर्द से हमें अब कोई फर्क नहीं पड़ता। यह कोई अपवाद नहीं है। देश के कोने-कोने में आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं, जिन्हें गैर मानवीयता की श्रेणी में रखा जा सकता है। कोई मर रहा है, तो मरने दो। कमोबेश इतनी संकीर्ण या स्वार्थ केंद्रित सभ्यता तो हमारी नहीं रही और न ही हमें ऐसे संस्कार हमारे पूर्वजों से मिले हैं। फिर क्यों आज ऐसी घटनाएं सामने आती हैं कि मुसीबत में पड़े शख्स की कोई मदद नहीं करता है। हम लोग क्यों तमाशबीन बनकर देखते रह जाते हैं? आजकल तो नया फैशन चल पड़ा है कि मदद तो करनी नहीं, बल्कि वीडियो जरूर बनाना है और उसे सोशल मीडिया में फैलाकर बेसब्री से उस पर लाइक्स या टिप्पणियों के इंतजार में बैठ जाते हैं। क्या यही सीख हम आने वाली पीढि़यों को देंगे। जब हम ही ऐसे हैं, तो आने वाली पीढ़ी से क्या उम्मीद कर सकते हैं। इसके लिए मैं किसी को दोष नहीं देता हूं। इसमें मैं भी उतना ही दोषी हूं, जितने अन्य कुछ लोग। आज इनसान को एक ऐसा इनसान बनने की जरूरत है, जो जानवरों से कहीं अलग व विवेकशील दिखे। हमें इनसानियत का मोल समझना चाहिए।