जीवन की अहमियत

बाबा हरदेव

महापुरुष, संतजन मानवता का संदेश हमेशा से देते चले आए हैं कि हमें मानवता की डगर पर ही चलना है। हमें यार के साथ ही इस सफर को तय करना है। यह सफर तय हो रहा है, एक-एक पल हमारे हाथों से जा रहा है, एक-एक श्वास जो हम ले रहे हैं , इसने वापस नहीं आना है। हम कहें कि हमारे पास इतनी दौलत है, तो मैं यह श्वास वापस ला सकता हूं तो ऐसा नहीं है।  एक बार श्वासें चली जाएं तो लौट कर नहीं आती। एक-एक पल जो बीत जाता है, वह अतीत बन जाता है। इसलिए तेजी से चलते समय भी इनकी संभाल की जाए। जितने श्वास हम ले रहे हैं, इनकी कदर कर ली जाए। ये बड़े अमोलक श्वास हैं, ये बड़े दुर्लभ हैं इसीलिए कहा जाता है कि श्वासों की संभाल कर ली जाए। इन श्वासों को सच के लेखे लगा लिया जाए। मानवता और प्यार के लेखे लगा लिया जाए, वरना तो श्वास लेते हुए भी हम बेजान सा जीवन जीने वाले माने जाएंगे। किसी के साथ कोई घटना घटती है और उसका बचाव हो जाता है, तो वह कहता है कि मैं बच गया हूं। मुझे जीवन दान मिला है।  यह परिभाषाएं भक्तजन देते हैं क्योंकि वे जीवन की अहमियत को जानते हैं इसलिए इस दिल का धड़कना प्यार के तहत ही है। अगर नफरत के तहत दिल घड़क रहा है तो वो दिल नहीं पत्थर से भी ज्यादा सख्त और कठोर है। अगर इस दिल की धड़कन प्यार वाली नहीं है, तो फिर यह पत्थर से भी ज्यादा जख्म देने वाले पत्थर दिल होते हैं, निर्दयता से युक्त होते हैं, उनके अंदर कोई दूसरों के प्रति दया का भाव नहीं होता। वो दूसरों को कीड़े-मकौड़े समझते हैं और अपने धर्म, मजहब को ऊंचा और दूसरों को नीचा मानकर चलते हैं। तो इस तरह से जिन लोगों का पत्थर जैसा दिल है, वह इनसान भी पत्थर दिल ही होता है। पत्थरों में कोई धड़कन नहीं होती, लेकिन ये वे पत्थर होते हैं जिसमें धड़कन होती है, जिसको दिल कह रहे हैं। पत्थर हमारी राह में पड़ा हो और हमारा पैर लग जाए, ठोकर लग जाए, तो हम पीड़ा से कराह उठते हैं। एक वह पत्थर जो ठोस पदार्थ के रूप में पड़ा हुआ है। वह हमारे शरीर को पीड़ा दे रहा है, लेकिन जो दिल पथरा गए हैं, वह हमारे मन, हमारी आत्मा को पीड़ा दे रहे हैं। तो ऐसी पीड़ा देने वालों पर भक्तजन विश्वास नहीं रखते हैं। वे इस बात पर विश्वास रखते हैं कि हमें दूसरों को सुकून देना है, हमें दूसरों को चैन देना है, हमें बनना है तो मरहम का रूप बनना है। हमें कहीं भी किसी दूसरे को पीड़ा नहीं देनी, किसी को जख्म नहीं देना है। यह हमेशा ही भक्तों की अवस्था रही है। यह उनकी मान्यता रही है और उसी मान्यता के अनुसार ही उनका जीवन में इस तरह से विचरना हुआ करता है। इसी आधार पर इनका व्यवहार होता है। फिर यह केवल शब्द नहीं रह जाते हैं, फिर सच में ही इस तरह मानकर चलते हैं कि कोई पराया, कोई बेगाना नहीं है। किसको पीड़ा दें, किस पर जुल्म करें। यह तो सारे अपने ही हैं। यह सारी धरती पर बसने वाले इनसान एक ही परिवार के अंग हैं। हम भले ही कोई कौम बना लें, कोई कुंटुंब बना लें, कोई परिवार बना लें। हम पता नहीं कितनी-कितनी पहचानें इस दुनिया में बना लेते हैं, लेकिन मूल रूप से महापुरुषों का कथन है कि जितने भी इनसान इस धरती पर हैं वह सभी इस एक ही परिवार का हिस्सा हैं और यह परिवार है खुदा का परिवार, इस निरंकार का, इस परमपिता परमात्मा का परिवार। अगर परमपिता है, तो सारे इसकी संतान हैं इसलिए भक्तजन सबका भला मांगते हैं, सबकी खैर मांगते हैं। न किसी के लिए विपरीत भाव रखते हैं और हमेशा यही सोचते हैं कि संसार सुखी रहे और हम भी सुखी रहें।