दर्द बांटने का समय

रोहड़ू के गांव तांगणू में अग्निकांड के अनेक कारण सामने आएंगे, लेकिन राहत का पैगाम एक ही होगा और यह संभव है कि हिमाचली समाज आगे आकर इनके आंसू पोंछे। बेशक तांगणू गांव के घर छोटे और लागत में भी कमजोर रहे होंगे, लेकिन आशियाना हमेशा जिंदगी से बड़ा होता है। अतः 49 परिवारों के लिए यह आग वजूद को स्वाह करने जैसी रही। साजे यानी मकर संक्रांति की आहुतियों में जलकर राख हुए परिवारों के सपनों का क्रंदन हम सुन सकते हैं। बेशक प्रशासन ने रहने का विकल्प और जीने के लिए राहत राशि का आबंटन तुरंत कर दिया, लेकिन विस्थापित समुदाय को सामाजिक संवेदना का आश्रय चाहिए। इसलिए ‘दिव्य हिमाचल’ ने अपने रिलीफ फंड के मार्फत तुरंत पचास हजार की राहत राशि जारी करते हुए समाज के आगे पुनः हाथ फैलाया है, ताकि तांगणू में हम सभी अपनी-अपनी संवेदना का स्पर्श जाहिर करें। इससे पूर्व कोटला (कांगड़ा) में जब एक पूरा गांव धंस गया, तो ‘दिव्य हिमाचल’ रिलीफ फंड सबसे पहले पहुंचा। इसी तरह कुल्लू का कोटला गांव जब अग्निकांड की भेंट चढ़ा, तो ‘दिव्य हिमाचल’ की अपील पर लाखों की राहत सामग्री जुटाने के अलावा रिलीफ फंड के माध्यम से प्रदेश के कोने-कोने से एकत्रित हुई राशि मरहम की तरह साबित हुई। इसी भावना से पुनः आपसे विनती है कि रोहड़ू के तांगणू का दर्द बांटने में आगे आएं। यह दीगर है कि राहत के चंद सिक्के उछालकर ऐसे हादसों की पीड़ा कम नहीं होती, फिर भी सभ्यता के प्रतीक तो विपत्तियों में ही साझा होते हैं। हम चाहें तो तांगणू से अपना इतिहास आगे बढ़ा दें और न चाहें तो इस अग्निकांड की जांच का इंतजार कर लें। ऐसे में जबकि हर साल सर्दी के दौरान अग्निकांड के ऐसे अध्याय निरंतर जुड़ रहे हैं, क्यों न हर गांव में सतर्कता समितियों का गठन हो और अग्निशमन का प्रशिक्षण तथा कुछ उपयोगी उपकरण उपलब्ध हों। हम किसी भी अग्निकांड में अभी तक यह साबित कर पाए कि प्रदेश का अग्निशमन विभाग पूरी तरह विकसित और सक्षम हो पाया है। विभाग की मौजूदगी भले ही शहरी परिदृश्य में अपना शपथ पत्र लहराती हो, मगर यह समीक्षा कभी नहीं हुई कि हिमाचल प्रदेश में आग लगने की घटनाओं के बीच अग्निशमन के बंदोबस्त किस तरह व किस स्तर के होने चाहिएं। न भौगोलिक दृष्टि से हिमाचली बस्तियों का मुआयना इस लिहाज से हुआ और न ही कोई ऐसा रोडमैप तैयार हुआ। कुल मिलाकर अग्निशमन विभाग की उपस्थिति का दायरा अगर बढ़ा भी, तो चुनौतियां कहीं अधिक पसर गईं। शहरों की गलियां तंग होते हुए भी मीलों आगे पहुंच गईं और इमारतें भी ऊंची हो गईं। ऐसे में प्रदेश में अग्निकांड रोकने के समाधानों पर कोई विशेष दस्तावेज सामने नहीं आया। अब तक किसी एक भी शहर को अग्नि बचाव की दृष्टि से, अगर न मुकम्मल सुरक्षा अधोसंरचना या संबंधित विभाग की पुष्ट तैयारी मिली, तो गांव या दूरदराज इलाकों पर बहस करने का शायद ही कोई फायदा होगा। सवाल यह उठता है कि दूरस्थ क्षेत्रों में काष्ठ शैली से बने मकानों को कैसे बचाया जाए। हर बार शरारती ईंधन के रूप में लकडि़यां जलती हैं, तो खतरे हमेशा दहकते रहेंगे। ऐसे में यह विषय केवल अग्निशमन विभाग की ही टोह नहीं लेता, बल्कि सार्वजनिक वितरण, उपभोक्ता मामलों, वैज्ञानिक विकल्पों तथा ग्रामीण विकास विभाग की कार्यशैली पर भी सवाल उठाता है। बर्फबारी या सर्दी के कठिन दौर के बीच तांगणू जैसे गांवों के प्रति प्रदेश के सरोकार क्या हैं। आज भी ऐसे स्थानों के लोग अपने जीवन की रखवाली के तौर-तरीके खुद चुनते हैं, जबकि विकास और विज्ञान के नए मायनों से एक सुरक्षा दीवार खड़ी की जा सकती है। सस्ते राशन की दुकान से हम कहीं भी अपने खर्च रोककर लाभ कमा सकते हैं, लेकिन तस्वीर की जो हकीकत तांगणू अभिव्यक्त करता है, उसे अलग से समझना होगा। वैसे तो कोई भी अग्निकांड तकलीफदेह अनुभव है, लेकिन सर्दियों में आग से जुड़ी जरूरतें किसी बाहरी आफत से कम नहीं। प्रदेश को चाहिए कि अग्निकांड की परिधि में ऐसे कठिन गांवों की एक फेहरिस्त तैयार करके विकास और राहत के मायने और पैमाने बदले। ईंधन तथा खाद्य सामग्री के रूप में अन्य विकल्प अगर तांगणू जैसे गांवों की पहरेदारी करेंगे, तो समाधान का एक जरिया अवश्य ही सामने आएगा। आग की जरूरत केवल लकड़ी के इस्तेमाल से ही पूरी नहीं होगी, बल्कि वैकल्पिक ईंधन की प्रचुर आपूर्ति तथा अग्निशमन के प्रति जागरूकता से हर गांव को जोड़ना होगा।