बर्फबारी में दबा आपदा प्रबंधन

( बीरबल शर्मा लेखक, मंडी से हैं )

शिकारी क्षेत्र में पिछले कई सालों से लोग फंसते आ रहे हैं, जिन्हें बचाव दलों ने जान पर खेल कर बचाया है। इसके बावजूद ऐसा कोई उपाय नहीं किया गया कि ऐसी स्थिति में कोई आगे न जा पाए। पहले तो सौभाग्य से जानें बचाई जाती रहीं, मगर इस बार काल रूपी भेडि़या आ ही गया, जो दो छात्रों को निगल गया। जो हुआ वह दिल दहलाने वाला है…

हिमाचल प्रदेश में बर्फबारी कोई नई बात नहीं है, इसके विपरीत अब तो बर्फबारी का दायरा लगातार कम होता जा रहा है। प्रदेश के मध्य क्षेत्रों की बात करें, तो लोग भूलते जा रहे हैं कि कभी उनके यहां भी बर्फबारी हुई होगी। इतिहास के पन्ने पल्टें, तो 1972 में सबसे नीचे तक बर्फ आई थी। मंडी जिला के मंडी व सुंदरनगर शहरों में तीन दिन तक बर्फ जमी रही थी। समुद्रतल से महज 2500 फुट की ऊंचाई पर इतनी बर्फबारी अब 35 साल बीत जाने पर भी नहीं हुई। 1984 में रिवालसर में इतनी बर्फ गिरी थी, इसके रास्ते घौड़ तक 19 फरवरी को बर्फ  रही थी। उसके बाद 1992 में मंडी सुंदरनगर तक फाहे पहुंचे और कुछ सालों के अंतराल पर ये फाहे देखे जाते रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के असर से मध्य क्षेत्र, जहां पहले साल दो साल छोड़ कर बर्फबारी होती रहती थी, में तो अब नई पीढ़ी के जहन से घर द्वार पर बर्फबारी का दृश्य गायब ही कर दिया है।  पुराने लोग जानते हैं कि मंडी जिला के जंजैहली जाने वाले कर्मचारी 50 किलोमीटर पीछे यानी चैलचौक से पैदल जाया करते थे, क्योंकि तब हर साल चैलचौक तक बर्फ आ जाती थी। जंजैहली का जिक्र इसलिए किया गया, क्योंकि प्रदेश ने दो होनहार छात्र अक्षय और नवनीत को इसी घाटी में बर्फबारी के कारण खोया है। इस त्रासदी से रू-ब-रू होने वाले हर शख्स का दिल इसे देख कर पसीजा है। मां-बाप के कलेजे के टुकड़े जिस तरह से जिंदा हिम समाधि ले गए, इससे बड़ा दुख शायद ही उनके लिए कोई और हो।

6, 7 व 8 जनवरी को होती रही बर्फबारी की दास्तां अभी खत्म नहीं हुई है। हजारों हजार लोग आठ से 12 दिन तक और कहीं इससे भी ज्यादा समय तक अंधेरे में रहे, बर्फ पिघलाकर पानी पिया, रास्ते बंद, घर से निकलना मुश्किल और फिर पशुओं पर जो कहर टूटा, वह अलग से। इसमें कोई शक नहीं कि पूरा सरकारी अमला सड़कें, बिजली, पानी को बहाल करने में लगा है। बेहद विपरीत स्थितियों में मौके पर काम चल रहा है। खून जमा देने वाली ठंड में मजदूर डटे हुए हैं। आज जबकि आपदा प्रबंधन अत्याधुनिक तरीकों से हो रहा है, हर घर-स्कूल व कार्यालय में आपदा प्रबंधन पर जानकारी दी जा रही है, प्रशिक्षण हो रहा है, इससे निपटने  के उपाय बताए जा रहे हैं, तो फिर बर्फबारी में इसकी भूमिका नगण्य क्यों रही? इसके लिए सरकार ने बाकायदा एक पूरा बोर्ड गठित कर रखा है। अब 21वीं सदी में भी यदि हम ऐसी आपदा परिस्थितियों, जो हिमाचल जैसे प्रदेश के लिए कोई नई नहीं हैं, से त्वरित निपट नहीं पा रहे हैं, तो कहीं न कहीं खोट तो जरूर है। क्या प्रशासन की सतर्कता कम है या विभागीय तालमेल में कमी है? बिजली की तारें, खंबे, किट कैट व अन्य उपकरणों की क्वालिटी सही है कि नहीं? पानी की पाइपें आज के युग में भी बर्फ से जम रही हैं, तो क्या इसे विकास के मॉडल हिमाचल प्रदेश का पिछड़ापन नहीं कहा जाएगा? मोबाइल चार्ज नहीं हो रहे, संचार व्यवस्था ठप रही है, तो फिर काहे का यह शोर कि देश के सौ करोड़ लोगों के पास मोबाइल सुविधा है और हम दुनिया के अव्वल देशों की तरह हाई-टेक हो गए हैं? मलबा हटाने वाली मशीनें ही बर्फ हटा रही हैं, उससे सडकें टूट रही हैं, तो फिर आधुनिक मशीनरी के दावों के मायने क्या हैं? यहां के लिए बर्फबारी कोई नई बात नहीं है, मगर यदि समस्या से निजात दिलाने की प्रक्रिया को पैसा कमाने का साधन कोई मान रहा है, इसे फसल पकने की संज्ञा देकर महज बिल बनाने तक समेटा जा रहा है, जैसे कि आरोप भी लगे हैं, तो यह वाकई गंभीर है।

इस पर सरकार और प्रशासन को आंखें खोलने की जरूरत है। इस पुरानी भ्रष्टाचारी परंपरा को खत्म करने का समय है, जिसमें कहा जाता था कि ज्यादा सड़कें बाधित होंगी, ल्हासे गिरेंगे तो लोक निर्माण विभाग की फसल पकेगी, क्योंकि मुंहमांगा बजट मिलेगा। गर्मियों में जल स्रोत सूख जाएंगे, जल संकट होगा, त्राहि-त्राहि मचेगी, तो आईपीएच महकमे की पौ बाहर होगी क्योंकि जो मांगोगे वह मिलेगा, जहां चाहोगे वहीं खर्च कर सकोगे। सर्दियों में बिजली महकमे की खूब फसल पकेगी जब ज्यादा लोड से तारें जलेंगी, किट कैट उड़ेंगे और फिर यह पैसा लेने का अच्छा बहाना होगा। नई तकनीक में हर समस्या का हल मिल सकता है, मगर जरूरत हिम्मत दिखाने की है। अब भ्रष्टाचारी बिल्ली यदि कहीं है, तो उसके गले में घंटी तो बांधनी ही पड़ेगी। वोट खो जाने के डर से ऐसा नहीं किया जाता है, तो जनता की तकलीफें कम नहीं होंगी, बल्कि और बढ़ेंगी। इसी शिकारी क्षेत्र में पिछले कई सालों से लोग फंसते आ रहे हैं, जिन्हें बचाव दलों ने जान पर खेल कर बचाया है, मगर इसके बावजूद ऐसा कोई उपाय नहीं किया गया कि ऐसी स्थिति में कोई आगे न जा पाए। पहले तो सौभाग्य से जानें बचाई जाती रहीं, मगर इस बार काल रूपी भेडि़या आ ही गया, जो दो छात्रों को निगल गया। जो हुआ वह दिल दहलाने वाला है। गलती चाहे किसी भी स्तर पर हुई हो, चाहे परिजनों की, एनआईटी प्रबंधन की या फिर कोई प्रशासनिक चूक हुई हो, दो प्रतिभाएं तो जिंदा दफन हो गईं। आइंदा से किसी मासूम की हिम या जल समाधि ने लगे, इसके लिए एक व्यवाहारिक  योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने की जरूरत है, मानवीय भूलों को कम करने की आवश्यकता है। ऐसी घटनाओं सें सबक लेकर इस पर काम करने का समय आ गया है।