बेटा ‘दंगल’ जीता, बाप चित

राजनीति में रिश्ते बेमानी होते हैं। खून पानी हो जाता है। शाहजहां और औरंगजेब की उपमाएं दी जाने लगती हैं। मुलायम सिंह तो वैसे भी औरंगजेब को अपना आदर्श मानते थे। आज बेटा औरंगजेब साबित हो रहा है। शुक्र है कि मुलायम को शाहजहां नहीं बनना पड़ा। राजनीति इतनी कमीनी होती है कि बेटा जीतता है तो हार बाप की होती है। लेकिन व्याख्या की जा रही है कि समाजवादी पार्टी की लड़ाई में लायक बेटे ने उस पार्टी को टूटने से बचा लिया, जिसे बाप ने कई संघर्षों, कुर्बानियों, तनावों, नाकामियों के बावजूद स्थापित किया था। यही नहीं, जब 2012 में पार्टी को जनादेश हासिल हुआ था, तब बाप ने करीब 60 साल की राजनीतिक विरासत बेटे को सौंपते हुए उसे मुख्यमंत्री बनाया था। कुछ विरोध हुआ था, लेकिन तब तक बाप पार्टी के भीतर और बाहर एकमात्र नेताजी माने जाते थे, लेकिन सपा में वर्चस्व की लड़ाई ने महाभारत सरीखा माहौल बना दिया था। बेटे ने सब कुछ तो छीन लिया था। नाम, बैनर, झंडा, चिन्ह छीने, अध्यक्षी पर कब्जा किया और खुद सुल्तान बन बैठे। ऐसे हालात पैदा क्यों हुए? क्या बाप पागल, विक्षिप्त हो गया था, लिहाजा तख्ता पलट जरूरी था? यदि बेटा बाप के बिना ही मजबूत, ताकतवर होता है, तो कोई भी परिभाषा गढ़ ली जाए। अलबत्ता इस लड़ाई में न तो समाजवाद जीता और न ही मूल्य, विचारधारा की जीत हुई। सिर्फ बेटा औरंगजेब बन बैठा। बहरहाल चुनाव आयोग का फैसला बेटे अखिलेश यादव के पक्ष में आया है। अब वह ही असली सपा है, राष्ट्रीय अध्यक्ष भी और चुनाव चिन्ह साइकिल के सवार भी हैं। फैसला 1968 के चुनाव चिन्ह आदेश के आधार पर दिया गया है। ऐसे फैसले साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर दिए जाते हैं। किसी के योगदान की उनके लिए कोई कीमत नहीं है। तमाम स्थितियां अखिलेश के पक्ष में थीं। संगठन के 4700 से अधिक कार्यकर्ताओं, नेताओं, प्रतिनिधियों और पदाधिकारियों के हल्फनामे, 288 में से 205 विधायकों के समर्थन पत्र, 24 में से 15 सांसद, 68 में से 56 एमएलसी अखिलेश के पाले में ही थे। यानी संगठन और विधायिका का एकतरफा बहुमत अखिलेश के पक्ष में था। मुलायम सिंह का विरोध मौखिक रहा, कोई हल्फनामा नहीं, लेकिन खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष मानने का दावा करते रहे। क्या मुलायम सिंह ने जानबूझ कर ऐसा किया? क्या मुलायम चुनाव आयोग के जरिए अखिलेश की ऐसी जीत तय कर देना चाहते थे, जिसे भविष्य में चुनौती न दी जा सके? क्या मुलायम इसी तरह अपनी विरासत अखिलेश को सौंपना चाहते थे? सपा के भीतर यह कुनबाई कलह या नूरा कुश्ती इसलिए नहीं मानी जा सकती, क्योंकि मामला एक तरह की अदालत के सामने पहुंच गया था। बहरहाल सपा पर अब कब्जा बेटे अखिलेश का है। जो बाप जीवन भर राजनीतिक दंगल लड़ता रहा, दांव खेलता रहा, चित करता और होता रहा, अब एकदम खामोश होकर बैठ जाएगा, ऐसा लगता नहीं है। वह अदालत में इस फैसले को चुनौती दे सकते हैं। वह अपनी नई पार्टी बनाकर या पुराने लोकदल के चिन्ह पर चुनाव में उतर सकते हैं अथवा पार्टी में संरक्षक, मार्गदर्शक बनकर शेष जीवन काट सकते हैं। बाप-बेटा बहुत जल्दी एक ही मंच पर आ सकते हैं, इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस फैसले के बाद उत्तर प्रदेश के राजनीतिक और चुनावी समीकरण बदलने तय हैं। अखिलेश के चाणक्य चाचा रामगोपाल ने साफ संकेत दिए हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन हो सकता है। लिहाजा उस स्थिति में मुसलमान किस दिशा में जाएगा, यह भी बहुत जल्द साफ हो जाएगा। बेशक आयोग के फैसले से कुछ देर पहले ही मुलायम सिंह ने सपा मुख्यालय पर पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था अखिलेश मुस्लिम विरोधी है। मुसलमान मेरी मदद करें। वे जानते हैं कि मैं मुसलमानों के लिए क्या कर सकता हूं और क्या किया है मैंने। दरअसल मुलायम सिंह का यह बयान अखिलेश का खेल बिगाड़े या नहीं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना जरूर है। धर्म, जाति, नस्ल, रंग, संप्रदाय, मत आदि के आधार पर वोट मांगना अवैध है, यह संविधान पीठ का फैसला था। बहरहाल सपा के दोफाड़ होने की स्थिति में मुसलमान कहां जाएंगे, यह इस चुनाव का सबसे अहम मुद्दा है, लेकिन अब विकास के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के दावों को अखिलेश के विकास कार्य चुनौती जरूर देंगे। महागठबंधन की ताकत को भी नकारा नहीं जा सकता।