भाजपा सर्वेक्षण की लक्ष्मण रेखा

अगर हिमाचल भाजपा अगले चुनाव में अपने प्रत्याशियों में नए रक्त की खोज कर रही है, तो सर्वेक्षण के माध्यम से अतीत का ढर्रा बदलने में कुछ हद तक मदद अवश्य मिलेगी। हालांकि पार्टी के भीतर एकत्रित महत्त्वाकांक्षा, परिवारवाद, जातीय समीकरण, क्षेत्रीय प्रभाव तथा प्रथम पंक्ति के नेताओं के प्रति आस्था रखने वालों का खासा जमावड़ा है, इसलिए आंतरिक सर्वेक्षण की स्वतंत्र तथा निष्पक्ष भूमिका को प्रमाणित करने के माहौल और वचनबद्धता की कठिन परीक्षा होगी। बद्दी में भाजपा ने अपने वजूद में सत्ता के संकल्पों को साकार करने की जो रूपरेखा बनाई है, उसमें आंतरिक नियम तथा कार्यप्रणाली के संबोधन स्पष्ट हैं। भाजपा के भारी व प्रभारी नेतृत्व की आरंभिक पाठशाला में कांग्रेस को खदेड़ने और अपनी सदेच्छा को सहेजने का वातावरण अगर निरूपित हुआ, तो इन्हें चारित्रिक प्रोत्साहन की मर्यादा में साबित करने का मार्ग और मंजिल अभी दूर है। यह इसलिए कि जिस सर्वेक्षण की बुनियाद पर भाजपा पुनः चाल, चरित्र और चेहरे को परख रही है, उसकी शर्तें मामूली नहीं हैं और न ही ये आचार संहिता के बिना पूरी होंगी। चुनावी जीत के लक्ष्यों में राजनीतिक समझौतों से पार्टी विमुख नहीं हो सकती और न ही सत्ता के प्रभुत्व में राजनीतिक आभार थमता है। कुछ बुलंद तस्वीर का हवाला अगर भाजपा को जनता की आंखों के सामने रखना है, तो अभी से बताए कि सर्वेक्षण की खोज में कितने प्रतिशत महिला उम्मीदवारों की संख्या निर्धारित होगी या हम मान कर चलें कि आगामी चुनाव में तयशुदा तैंतीस फीसदी का हक नारी जगत को मिलेगा। क्या यह संभव है कि भाजपा अभी से घोषित करे कि सत्ता वापसी के परिदृश्य में सरकार के लाभकारी पद नहीं बंटेंगे। यह इसलिए कि भाजपा की चार्जशीट का एक नैतिक पक्ष उसी से पूछ रहा है कि अगर कल सत्ता में लौटती है तो बोर्ड-निगमों के ओहदों को गैर राजनीतिक कैसे बनाएगी या महाधिवक्ताओं के साथ कितने सहायकों की नियुक्ति की लक्ष्मण रेखा तय रहेगी। जाहिर है राजनीतिक पार्टियां जिन्हें उम्मीदवार बनाती हैं, उससे कहीं भिन्न जनता का पक्ष होता है। जनता कैसे उम्मीदवार चाहती है, इसका अगर एक ईमानदार सर्वेक्षण भाजपा कराए, तो सूचियां बनाने की वजह व तर्क बदलेंगे। अभी तक तो परोसे हुए प्रत्याशियों के बीच किसी एक को चुनने की विवशता में मानवीय आक्रोश के चलते या जातीय आगोश में पसंद बिगड़ती या बनती है। हिमाचल के अब तक के सियासी इतिहास में सही उम्मीदवारों का चयन किसी खोज पद्धति के बजाय, राजनीतिक पार्टियों की केंद्रीकृत प्रक्रिया ही करती रही। नतीजतन उम्मीदवारों की काबिलीयत, पृष्ठभूमि, नेतृत्व क्षमता, विजन, प्रदर्शन और अनुभव के बजाय उस विजयी संभावना को देखा जाता है, जो सत्ता के लिए केवल आंकड़े जुटाने का रास्ता है। इसलिए राजनीतिक जमात का वर्चस्व, आम जनता की अपेक्षाओं और उम्मीदों से अलग नेतागिरी का असली आलम है। भाजपा ने उम्मीदवार चुनने का एक रास्ता अपने सर्वेक्षण की व्यापकता में देखा है और जिससे आंतरिक टूट-फूट को एक सीमा तक संबोधित किया जा सकता है, लेकिन इसके साथ जनता की भागीदारी का पक्ष भी जुड़ना चाहिए। प्रदेश के लिए उम्मीदवारों का चयन करते हुए भाजपा को ऐसे लोगों को मौका देना चाहिए, जो पर्वतीय आर्थिकी, बागबानी-कृषि, भाषा-संस्कृति एवं कला, पर्यटन, विज्ञान-तकनीक, युवा-खेल तथा ग्रामीण परिदृश्य के जानकार हों। हिमाचल को ऐसे विचारों और विचारकों की आवश्यकता है, जिनके माध्यम से यह प्रदेश मीलों आगे जा सकता है। पार्टी के भीतर विभिन्न धड़ों की खरोंचें हटाए बिना सर्वेक्षण की सफेद तस्वीर सामने नहीं आएगी, इसलिए सर्वप्रथम अनुशासन की ईमानदार पलकों से राजनीतिक दृश्यावली बदलनी होगी। पार्टी के साथ संबंधों के बजाय नेताओं की डोर से बंधे आभामंडल को बदलने की कवायद में अगर प्रस्तावित सर्वेक्षण नया धरातल खोज पाया, तो निश्चित रूप से भाजपा के घोड़े चारों दिशाओं में दौड़ पाएंगे।