आज हम सनातन के आधार पर खड़ी व्यवस्थाओं को देखते हैं और उसकी तुलना में सेमेटिक मूल्यों पर आधारित संस्थाओं को देखते हैं तो उनके विरोध के कारण और परिणाम स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। इन विरोधों को समझने के लिए विद्वता की आवश्यकता नहीं है, मात्र व्यवहार दृष्टि पर्याप्त है…
ऋषि याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ लक्षण गिनाए हैं-
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। दानं दमो दया शांतिःसर्वेषां धर्मसाधनम्।। (अहिंसा, सत्य, चोरी न करना; अस्तेय, शौच; आंतरिक एवं बाह्य स्वच्छता, इंद्रिय-निग्रह; इंद्रियों को वश में रखना, दान, संयम,दम, दया एवं शांति।)
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाए गए हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं-
सत्यं दया तपःशौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागःस्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः।
तेषात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं। इन सबके साथ ‘आचारः प्रथमो धर्मः’ के सूत्र ने इन सभी को आचरण में लाने के नाना प्रकार के उपायों को संस्थागत स्वरूप दिया गया। धर्म के इन लक्षणों से स्पष्ट है कि समाज के लिए जो कल्याणकारी है, वही धर्म है। इन्ही मूल्यों के आधार व्यक्ति, परिवार, कुटुंब, समाज, ग्राम जनपद, राष्ट्र और उनमें शिक्षा, न्याय, स्वास्थ्य, व्यापार-वाणिज्य व्यवहार, प्रशासन आदि की रचना हुई। आज हम सनातन के आधार पर खड़ी व्यवस्थाओं को देखते हैं और उसकी तुलना में सेमेटिक मूल्यों पर आधारित संस्थाओं को देखते है तो उनके विरोध के कारण और परिणाम स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। इन विरोधों को समझने के लिए विद्वता की आवश्यकता नहीं है, मात्र व्यवहार दृष्टि पर्याप्त है। सामंजस्य और सामूहिक अस्तित्व के जिस अन्योन्याश्रित जीवन रचना को, जिसमे पशु-पक्षी से लेकर प्रकृति के सभी अंगों के साहचर्य की भावना स्वयं के अस्तित्व के लिए आवश्यक मानी गई, ऐसी सनातन सभ्यता के विरोध में सेमेटिकों की दृष्टि बहुत एकांगी और बाध्यकरने वाली है। इस दृष्टि का एक उदाहारण फ्रांसिस बेकन का कथन है,जिसमें उसने कहा है कि प्रकृति स्त्री के समान है जिसकी बांह मरोड़ने से वह सब कुछ बता देती है। यह बलात् बल प्रयोग को स्वयं के स्वार्थ पूर्ति करने के अधिकार को ठीक बताती है। इसी कारण से साम्यवाद, पूंजीवाद, ईसाइयत, इस्लाम में मूल रूप से कोई भेद नहीं है। भेद है तो मात्र इतना कि यह बलात् अधिकार आप किसके नाम और किस किताब को आधार मान कर के कर रहे है। ईसा मसीह की शिक्षाएं क्या थीं, यह इस लेख का विषय नही हैं अपितु उनके अनुयायियों का कार्य-व्यवहार किस प्रकार सनातन मूल्यों के विरोध में खड़ा है और जो भी सेमेटिक शक्तियों के साथ खड़ा है सनातन समाज कैसे उसको अपने ऊपर हो रहे आक्रमण के रूप में देखता है, उसको स्पष्ट करना है। हमारे यहां सत्य को अंतिम नहीं माना, सभी में परम तत्त्व का अंश स्वीकार किया गया है। असहमति को भी स्थान दिया गया। जब राष्ट्र की एकता अखंडता पर परकीय राजनीतिक मतवादों के कारण संकट आया हुआ हो और संकट भी ऐसा जो उनके सहस्त्राब्दियों से सिंचित, पोषित-पल्लवित समाज रचना को नकार रहा हो तो प्रतिरोध अधिकार ही नहीं स्वयं के अस्तित्व की रक्षा करने की विवशता को भी स्पष्ट करता है। मानव मात्र की श्रेष्ठता को सुनिश्चित करने की सनातन की विचार और व्यवहार यात्रा का यह भी एक मील पत्थर है, जिसमें सनातन सभी को श्रेयस की ओर ले जाने के अपने महत्ती नैसर्गिक धर्म का निर्वहन स्थिर चित्त होकर कर रहा है।
-देवेंद्र शर्मा (लेखक, उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता और ‘हिंदू इंस्टीच्यूट ऑफ पॉलिटिकल रिसर्च’ के संस्थापक हैं।)