सिद्धू की नई पिच

लगातार मुलाकातों और अटकलों के बाद अंततः नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस में शामिल हो गए। बीते चार-पांच दिनों में उनकी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकातें हुईं और राहुल ने माला पहनाकर सिद्धू को कांग्रेस का हिस्सा बना दिया। दरअसल सिद्धू सोच-विचार के स्तर पर कांग्रेसवादी नेता नहीं हैं। पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेयी ने उन्हें भाजपा में शामिल होने का न्योता दिया था। वह दस सालों तक भाजपा के लोकसभा सांसद रहे। जिस ईमानदारी, देशभक्ति, राष्ट्रवाद की बातें सिद्धू कहा करते थे, कमोबेश कांग्रेस उस कसौटी पर नाकाम है। नतीजतन आज कांग्रेस राजनीतिक रसातल की ओर है, डूबता हुआ जहाज है। यह सिद्धू की राजनीतिक मजबूरी रही होगी कि उन्हें कांग्रेस का ‘हाथ’ थामना पड़ा। अलबत्ता यूपीए की मनमोहन सरकार के दौरान वह सार्वजनिक मंचों से कहा करते थे, ‘आगे-आगे मनमोहन सरकार, पीछे चोरों की बारात।’ सिद्धू ने यह तुलना कई बार की है-बाजपेयी जी देश को सोने की चिडि़या बनाना चाहते थे, लेकिन मनमोहन सिंह सोनिया की चिडि़या बनाने पर तुले थे। बेशक उसे सिद्धू की राजनीतिक प्रतिबद्धता करार दे सकते हैं कि उन्हें कांग्रेस का विरोध करना ही था। अब वह विधानसभा चुनावों में भाजपा का विरोध करते दिखाई देंगे, लेकिन भाजपा, बाजपेयी और अब मोदी सरकार को कमोबेश चोरों की बारात नहीं कह सकते। सिद्धू ने कई बार सार्वजनिक मंचों से भाजपा को ‘मां’ माना था। मां को गालियां देना या कोसना हमारे संस्कारों में नहीं है। सिद्धू ने जुलाई, 2016 में राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया और सितंबर में भाजपा को ही छोड़ दिया, लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि ऐसे कौन से बड़े कारण थे, जो सिद्धू अपनी ‘मां’ से ही रूठ गए और अब ‘कैकेयी’ और ‘कौशल्या’ का फर्क समझा रहे हैं। अमृतसर सीट उनका गढ़ है, लेकिन बपौती नहीं। यदि पार्टी नेतृत्व 2014 के लोकसभा चुनाव में अरुण जेटली को उस सीट से लड़ाना चाहता था, तो सिद्धू को जिद नहीं करनी चाहिए थी। पार्टी ने उनके लिए कुरुक्षेत्र सीट की पेशकश की थी। बेशक जेटली को पराजित होना पड़ा। सिद्धू के बार-बार आग्रह पर भाजपा, अकाली दल के साथ दशकों पुराना गठबंधन भी तोड़ नहीं सकती थी। यदि नशे की तस्करी, माफिया, भ्रष्टाचार सरीखे मुद्दे थे, तो उन पर नेतृत्व के स्तर पर संवाद हो सकता था। बहरहाल अब यह सब कुछ अतीत है, लेकिन यथार्थ यह है कि 12 लाख करोड़ के घोटालों से कलंकित कांग्रेस का आज वह हिस्सा हैं। यथार्थ यह भी है कि कांग्रेस के पंजाब अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर से उनका अहं का टकराव होगा। कांग्रेस ने सीएम का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। सिद्धू कैप्टन के जरिए नहीं, सीधा गांधी परिवार के सौजन्य से कांग्रेस में आए हैं। लिहाजा पार्टी की सरकार बनने पर वह भी सीएम का दावा ठोंक सकते हैं। पार्टी में कैप्टन विरोधी नेता उनकी छाया में लामबंद हो सकते हैं। सिद्धू कांग्रेस के स्टार प्रचार की भूमिका में भी होंगे। पंजाब के अलावा उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में वह पार्टी के लिए प्रचार करेंगे। सिद्धू एक नई राजनीतिक पिच पर होंगे। बेशक वह एक लोकप्रिय और बेदाग चेहरा हैं, लेकिन पंजाब, पंजाबी, पंजाबियत के उनके जुमले में कितना दम है, बहुत जल्दी साफ हो जाएगा। पंजाब के संदर्भ में किसी बड़े आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व नहीं किया। अमृतसर में उन्होंने एक काफिले के जरिए अपना शक्ति प्रदर्शन तो किया है, लेकिन हकीकत यह है कि यदि ‘आप’ कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाने में सफल रही, तो कोई आश्चर्य नहीं कि तीसरी बार लगातार अकाली-भाजपा की ही सरकार बन जाए।