हिमाचली भ्रष्टाचार के स्रोत

सियासी सर्कस में भ्रष्टाचार का विषय जिस तरह चुनावी माहौल का तापमान बताता है, उसी तरह सत्ता परिवर्तन के बाद यह ताबूत में चला जाता है। हिमाचल की तपती चुनावी रेत पर सबसे पहले यही मुद्दा चलने लगा और भ्रष्टाचार के चिट्ठों का नामकरण आरोपों की सियाही से हो गया। हिमाचली सत्ता के खिलाफ आरोपों का पुलिंदा, जिसे चार्जशीट में बदलने की मशक्कत पुनः एक शाश्वत सच खोज रही है कि आखिर हिमाचल में भ्रष्टाचार के स्रोत कहां हैं। जाहिर है हिमाचल में आरोपों की अंगुलियां जितनी बड़ी हैं, उतने ही भ्रष्टाचार के स्रोत बढ़ रहे हैं। यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ आरोप चले तो भ्रष्टाचार की गलियों में ही सिमट कर रह गए। यह दौर ऐसे हिमाचल का है, जो किसी एक राजनीतिक दल को न साधु मानता है और न ही शैतान ठहराता है, बल्कि जमीन के स्वार्थ में ध्वस्त होती ईमानदार परिपाटी के खिलाफ कई मोहलतें और प्रश्रय हासिल करने का सामर्थ्य दिखाई देता है। क्या हमने कभी सोचा कि जिस धारा-118 के बर्ताव से भ्रष्टाचार के रास्ते निकले हैं, उसे कैसे सही किया जाए। हैरानी है कि हिमाचल में गैर हिमाचली का बसना भी भ्रष्टाचार है। इस अधिनियम की वजह से हिमाचल के चरित्र में आए रिसाव पर कभी कोई बहस नहीं हुई, लेकिन हर बार कोई न कोई सत्ता दोषी और विपक्ष पुण्य का हकदार हो जाता है। कुछ इसी तरह वन संरक्षण अधिनियम अपने भयावह आचरण की वजह से हिमाचली चरित्र को अपमानित करता है। यह राज्य की जमीन को जंजीरों से बांधने की परिपाटी साबित हुआ और जब सरकारों के प्रदर्शन पर आंच आती है, तो कर गुजरने की चुनौती के सामने सही मंशा भी अपराधी की तरह देखी जाती है। प्रदेश की सरकारें दो कदम आगे बढ़ाने की कोशिश में पीछे मुड़ जाती हैं या यह मान लिया जाता है कि जंगल में केवल जंगल का राज ही चलेगा। दरख्त कटते हैं तो आंच आती है, नहीं तो लटके रहते हैं वर्षों तक प्रोजेक्ट या इन्हें चिन्हित करती योजनाएं। ऐसे में राजनीतिक संरक्षण का जन्म होता है और भ्रष्टाचार भी सियासी महत्त्वाकांक्षा की तरह हो जाता है। राजनीतिक आदेशों की क्योंकि कोई फाइल नहीं होती और जो अधिकारी इनका कायल हुआ, वही घायल हुआ। प्रदेश में राजनीतिक संरक्षण के फैलते पंजों ने ठेकेदारी प्रथा को तो बढ़ावा दिया, लेकिन स्पष्ट नीतियों से किनारा किया। इसी के मार्फत एक माफिया खड़ा हुआ, जो मान्यता प्राप्त है और अपने आप में एक तंत्र है। प्रदेश की खुशहाली का आबंटन भी जिसे प्रेरित करता है, वहां भ्रष्टाचार के दिशा-निर्देश मिटाए नहीं जाते और सीढि़यां अंतिम छोर से उठ जाती हैं। बीपीएल परिवारों की शिनाख्त में किस सियासत को दोष दें और क्या इन्हें केवल एक तरह की सत्ता से जोड़ दें। गांव की प्रतिरक्षा क्षमता में नागरिक चरित्र को भ्रष्टाचार का रोग न लगे, यह गैरमुमकिन है। आश्चर्य यह कि हिमाचल में हर आयु वर्ग को सियासी सिंहासन की बदौलत कहीं अधिक और नीतियों से कम देखा जा रहा है, अतः युवाओं का बेरोजगार होना  और सरकारी नौकरी का खिलौना बनना ही सबसे लंबा भ्रष्टाचार है। यह कौन सा न्याय, युवा नीति या अर्थशास्त्र है, जो युवा पीढ़ी को उम्र के पैंतालीस साल तक सरकारी नौकरी के झूले में बैठाए रखना चाहता है। सच यही है कि पैंतालीस साल तक घिसटने वाले युवा के सामने नौकरी के आईने के पीछे भ्रष्टाचार का दैत्य छिपा रहता है, लेकिन रोजगार की कोई स्पष्ट नीति नहीं। सीधी भर्तियों के बजाय, पिछले दरवाजे से हाजिरी लगाते अस्थायी सरकारी रोजगार की फितरत का मलाल हर पार्टी को होता है, लेकिन चुनाव की परिधि के बाहर सब कबूल है, यानी सत्ता की अदला-बदली में कसूर व बेकसूर में फासला सिमट जाता है। इसलिए आज तक स्थानांतरण नीति के न होने में किसी ने भ्रष्टाचार नहीं सूंघा, जबकि कई किरदार इसी वजह से अपने पद और स्थान को लगातार अपवित्र कर रहे हैं। ऐसे में चार्जशीट की मेहनत में भाजपा के प्रश्नों को खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन संकल्प तो यह चाहिए कि उनकी सत्ता भ्रष्टाचार उन्मूलन कैसे करेगी। भाजपा अगर वाकई भ्रष्टाचार को मिटाना चाहती है तो धारा-118, ठेकेदारी प्रथा, सरकारी भर्तियों, स्थानांतरण व अन्य कर्मचारी मसलों तथा राजनीतिक तरफदारी से सरकारी ओहदों पर नीतिगत दस्तावेज पेश करे और अपनी केंद्र सरकार से वन संरक्षण अधिनियम की आक्रामक फांस से सैद्धांतिक मुक्ति का प्रस्ताव भी प्रस्तुत करे।