हिमाचल लेखक संघ की संभावनाएं

आलम यह है कि ‘ढाई पकौडि़यां छाबडि़या, बणी रे डलहौजिया रे लालो।’ जिसकी पांच-सात रचनाएं कहीं प्रकाशित हुई हैं या हो जाती हैं, वही अपने को दूसरों से बेहतर और बड़ा मानने लग जाता है। चिंतन, अवलोकन, विश्लेषण और स्वस्थ आलोचना का मंच न मिलने के कारण लेखन में वो धार, पैनापन और नवीनता नहीं आ पाती। अपना कीर्तन खुद गाने से भक्त शिरोमणि नहीं बना जा सकता। ऐसे साझा मंच लेखन को संवारने और दिशा देने में सहयोगी हो सकते हैं, बशर्ते इन मंचों पर एक स्वस्थ परंपरा का निर्वाह होता हो। हिमाचल लेखक संघ का गठन होना निश्चित रूप से आवश्यक है। एक सशक्त संघ अपनी बात मजबूती से कह सकता है। उसकी आवाज में दम होता है।  इससे साहित्यिक गुटबंदी खत्म तो नहीं होती, कम हो जाती है…

नववर्ष में ‘प्रतिबिंब’ के अंतर्गत सृजन को लेकर दो लेख क्रमशः प्रकाशित हुए। सुखद लगा। डा. सुशील कुमार फुल्ल के लेख में विगत वर्ष के सृजन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का सद्प्रयास था। वहीं मुरारी भाई के लेख में भविष्य की संभावनाओं का बड़ी उम्मीदों से भरा सपना है। आखिर उम्मीद पर दुनिया टिकी है, और उम्मीद के साथ सपने बाबस्त होते हैं। दोनों विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से विषय को छुआ है। उस पर सवाल भी उठाए हैं, शंकाएं व्यक्त की हैं। दरअसल, इन लेखों में उठाए सवालों, मुद्दों पर अलग से विस्तार के साथ लिखा जा सकता है। मसलन हिमाचल भाषा एवं संस्कृति विभाग और हिमाचल अकादमी की कारगुजारियों पर एक पूरा तथ्यपरक लेख, विश्लेषण वक्त का तकाजा है। इन दोनों अदब से जुड़े विभागों पर जो असल में एक सिक्के के दो पहलू हैं, सच में लिखने की जरूरत है। जहां अच्छा-बुरा, सफलता, असफलता, उपलब्धियां, नाकामयाबियां, पक्षपात, पूर्वाग्रह, उपेक्षाएं, ठेंगा दिखाने की प्रवृत्ति इतनी स्वाभाविक बन गई है कि यह फैसला करना मुश्किल होता है कि इनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाएं या फिर उनकी धज्जियां उड़ाई जाएं। कुल मिलाकर तस्वीर का रुख ज्यादा उजला नजर नहीं आता और अंधों द्वारा रेवडि़यां बांटने का सिलसिला बदस्तूर जारी है और शायद आगे भी रहेगा। बहरहाल, मुरारी जी ने साहित्यिक खेमेबाजी और अपने-अपने गढ़ों का जिक्र किया है। साहित्यिक खेमेबाजी, गढ़ों से बाहर निकलने, साहित्य की दुनिया और यथार्थ की दुनिया के बारे में चिंतन की जरूर दरकरार है। आज का हिमाचल पच्चीस-तीस वर्ष पहले का हिमाचल नहीं है। अब सब कुछ बदल गया है और तेजी से बदल रहा है। आज पहले के दो-तीन दशकों के मुकाबले अधिक लेखन हो रहा है और हिमाचल रचनाशीलता का नोटिस लिया जा रहा है। कुछ सालों पहले के मुकाबले आज अधिक महिला रचनाकार सक्रिय हैं। लेकिन जो बात अब ज्यादा खलती है, वह यह कि हिमाचली लेखकों का एक सांझा मंच नहीं है।

कोई कारगर लेखक संघ या संगठन नहीं है। वहीं अपने-अपने किले हैं। इससे लाभ कम और हानि ज्यादा होती है, विशेषतया नवोदितों को। वे समझ नहीं पाते कि किस खुदा को सलाम करूं और किससे किनारा करूं। यहां तो आलम यह है कि ‘ढाई पकौडि़यां छाबडि़या, बणी रे डलहौजिया रे लालो।’ जिसकी पांच-सात रचनाएं कहीं प्रकाशित हुई हैं या हो जाती हैं, वही अपने को दूसरों से बेहतर और बड़ा मानने लग जाता है। चिंतन, अवलोकन, विश्लेषण और स्वस्थ आलोचना का मंच न मिलने के कारण लेखन में वो धार, पैनापन और नवीनता नहीं आ पाती। अपना कीर्तन खुद गाने से भक्त शिरोमणि नहीं बना जा सकता। ऐसे साझा मंच लेखन को संवारने और दिशा देने में सहयोगी हो सकते हैं, बशर्ते इन मंचों पर एक स्वस्थ परंपरा का निर्वाह होता हो। हिमाचल लेखक संघ का गठन होना निश्चित रूप से आवश्यक है। एक सशक्त संघ अपनी बात मजबूती से कह सकता है। उसकी आवाज में दम होता है।  इससे साहित्यिक गुटबंदी खत्म तो नहीं होती, कम हो जाती है। यदि डोगरा लेखक संघ के बैनर तले इकट्ठे होकर एक बोली को भाषा में ढाल दिया जाता है, केंद्रीय पंजाबी लेखक संघ,पंजाबी को पंजाब की राजभाषा बनाने में सार्थक भूमिका निभा सकता है तो एक सर्व साझा हिमाचल लेखक संघ क्यों नहीं बन सकता? नाम कुछ भी हो सकता है। पर वक्त का तकाजा है कि हिमाचल में सभी लिखने वाले इस पर गौर करें। ये जो हमारे अपने-अपने किले और गढ़ हैं, इसके कारण संवाद की कमी अखरती है। जबकि साहित्य के संवर्द्धन के लिए संवाद की सार्थकता सर्वविदित है। मैंने दो पड़ोसी लेखक संघों की ओर संकेत किया है। यदि दायरे को और बढ़ा दिया जाए तो बंगाली, मराठी, कन्नड़ आदि भाषाओं के लेखक संगठन वर्णनीय हैं। भले ही हिमाचल में अधिकांश लेखन हिंदी में ही होता है पर हिमाचली अस्मिता की अलग पहचान और स्थान है, जो हर दशा में बना रहना चाहिए। पहाड़ी में लिखने वाले भी हैं। आखिर हमारी मान्य अकादमी, उर्दू, अंगे्रजी, संस्कृत आदि भाषाओं पर लिखने वालों को भी नवाजती है। हिमाचल में आबादी का अधिकांश ग्रामीण है और आजकल के हमारे अधिकांश नामी-गिरामी लेखक इसी ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं और अब शिमला, मंडी, धर्मशाला आदि शहरों में बस गए हैं। इन शहरों में ही अपने-अपने खेमे और गढ़ हैं, जो अपने सिवा दूसरों को कम ही घास डालते हैं। किसी की एक स्तरीय रचना इसलिए चर्चा से बाहर या नोटिस के बगैर रह जाती है कि उसके रचनाकार किसी खेमे या गुट से सम्बद्ध नहीं है। मठीधीशों की सामंती परंपरा तोड़ने के लिए भी सर्व साझे मंचों का होना लाजिमी है। अच्छे साहित्य का पाठकों, उस जनता तक पहुंचना जरूरी है, जिसके नाम पर वह साहित्य रचा जाता है।

यह तभी मुमकिन है, जब हमारे लेखकों का एक ऐसा मंच है, जो सबकी आवाज में अपनी आवाज मिलाए। अपने-अपने छोटे सत्ता केंद्र बनाकर सामान्य जनता में सम्मान के कम और उपहास या उपेक्षा के पात्र अधिक बनते जा रहे हैं, जो लिखते हैं, वही पढ़ते हैं, बाकी पाठक या श्रोता कहां चले गए। बहुत से नवोदित इसलिए कुछ समय बाद लिखना छोड़ देते हैं कि उनकी रचनाशीलता अकेली और उपेक्षित रह जाती है। कुछ सामान्य सा लिखने वाले इस बिना पर महान हो जाते हैं कि उनका खेमा उन्हें खूब प्रचारित प्रसारित करता है, बस खेमा कुछ दम-खम या तिकड़म से भरपूर हो। एक सर्व सांझा लेखक मंच, जिसके साथ वरिष्ठ, नवोदित, चर्चित प्रतिष्ठित और संघर्षरत सभी जुड़े हों, का होना एक शुभ संकेत होगा।

—हंसराज भारती