अठारह-बीस की उम्र
किसी को मारने की नहीं
खुद किसी पर मरने की
उम्र होती है
इस उम्र में तो होते हैं
हर तरफ मेले ही मेले
सजी होती है बहारें
दूर तक नजर आती है
जिंदगी की खूबसूरती
दिन-दोपहर को भी सपने
दिखाई देते हैं
पर मां तूने
इस नायाब उम्र में मुझे
घरों से बेघर करने वाले
शरीफों के हवाले सौंप दिया
बना दिया पहरेदार
नफरत की काल
कोठरियों का
मेरी मस्ती भरी चाल को
शातिर भेडि़यों के दबे पांव
में ढाल दिया
गुलाब बांटने वाले हाथों में
थमा दी बंदूक
सच मां
बेबसी एक ऐसा सोख्ता है
जो सोखा लेता है जिंदगी
की सारी
नमी, कोमलता,हरियाली
और ढाल देता है उसे
निर्ममता के गहरे अंधेरों में।
—हंसराज भारती