अधिक आहार का अत्याचार

एक बहुत बड़ी गलती अधिक भोजन की है। आवश्यकता से अधिक भोजन करना पेट के साथ प्रत्यक्ष अत्याचार है। प्रातः काल हम दूध और मिठाइयां, दोहपर में ठूंस-ठूंसकर भोजन, शाम को फिर नाश्ता और रात को भोजन करते हैं। सोते समय दूध पीते हैं, बीच में बार-बार छोटी-छोटी चीजें फल, चाय के प्याले, सिगरेट, चाट-पकौड़ी, रबड़ी, मिठाई न जाने कितना अधिक खा जाते हैं, नब्बे प्रतिशत बीमारियां अधिक भोजन खाने से होती हैं। एक चौथाई भोजन से मनुष्य का पोषण होता है और तीन चौथाई से डाक्टरों की डाक्टरी चला करती है। हमारी पाचन शक्ति के ऊपर इतना बोझ पड़ जाता है कि अजीर्ण, मंदाग्नि, उल्टी, दस्त, ग्रहणी, बुखार आदि हमें आ घेरते हैं। आवश्यकता से अधिक खाना शारीरिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से घृणित है। शारीरिक दृष्टि से तो यह इसलिए निंद्य है कि शरीर के अंदर कूड़ा-कर्कट गंदगी का बोझ बढ़ता है और मल-निष्कासक अवयवों पर व्यर्थ का बोझ लदता है, शरीर में विष एकत्रित होकर रोग उत्पन्न होते हैं और यह आर्थिक दृष्टि से इसलिए बुरा है कि मनुष्य को बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है। ‘विहार’ का अभिप्राय है हमारा रहन-सहन। टहलना, घूमना-फिरना, बैठना, रति-क्रीड़ा इत्यादि का भी इसमें समावेश है। ‘विहार’ का हमें विस्तृत अर्थ लेना चाहिए। आज के नगरों, तंग गलियों, गंदी सड़कों, बिना रोशनदान और छोटी खिड़कियों वाले मकानों को देखिए। शरीर की प्रथम आवश्यकता है- शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल वायु। इन गंदी गलियों में शुद्ध वायु भी मिलना एक वरदान है। आबादी अधिक होने से सीलन भरे अंधेरे कमरों में इतने अधिक लोग भरे रहते हैं कि उन्हें अनेक प्रकार के छूत के रोग लग जाते हैं। व्यायाम के लिए स्थान नहीं मिलता। सोना, बैठना, भोजन पकाना, स्टोर तथा नाना वस्तुएं रखना आदि सभी काम उसी में होते हैं। शुद्ध वायु और पर्याप्त प्रकाश न मिलना रोगों का प्रथम कारण है। घरों के पश्चात हम अधिक समय आफिसों, कल-कारखानों, दफ्तरों और दुकानों पर व्यतीत करते हैं व अप्राकृतिक ढंग से बैठते हैं, रीढ़ की हड्डी झुकाए रहते हैं, फेफड़ों में पूरी हवा नहीं भरते अधूरा श्वास लेते हैं। यथेष्ट मात्रा में जल नहीं पीते, अमाशय को सुखा डालते हैं। इन प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति यथासमय न करने के कारण हम रोग रूपी सजा पाते हैं। टहलने और घूमने-फिरने का हमें बहुत कम अवसर प्राप्त होता है। जब से साइकिल का प्रयोग प्रारंभ हुआ, तब से तो यह समझिए- हमने अपने पांवों में स्वयं कुल्हाड़ी मार ली। मनुष्य का निर्माण एक भागने, छोड़ने वन्य पशुओं का आखेट करने वाले शिकारी के रूप में हुआ। जंगलों, प्रकृति के अंचल में बहने वाली सरिताओं के तटों, अमराइयों, वृक्ष और लताओं के मध्य रहकर उसने उस युग में सबसे उत्तम स्वास्थ्य और आयु प्राप्त की। आज हम एक ही स्थान पर बैठे रहकर अपनी तोंद फुला रहे हैं, पैरों को अशक्त बनाकर पंगु-से बने हुए हैं। स्वच्छ हवा छोड़कर पूरा-पूरा दिन दुकानों और कारखानों में व्यतीत कर देते हैं। किसी धन-संपन्न परिवार के स्त्री-पुरुषों के मोटे-मोटे शरीर को देखकर जो व्यक्ति के स्वास्थ्य का अनुमान करते हैं, वे स्वास्थ्य और शक्ति को पहचानने में बड़ी भूल करते हैं। धनी व्यक्तियों के भारी भरकम शरीर स्वास्थ्य के परिचायक नहीं हैं। वे तो सदा अपच,कब्ज, खट्टी डकारों तथा बादी के शिकार रहते हैं। यह प्रकृति से बहुत दूर जा पडे़ हैं। धन का मद उनके और प्रकृत्ति के मध्य एक दीवार है। स्वास्थ्य और शक्ति का धन के साथ कोई संबंध नहीं है।