अहंकार ही सबसे बड़ी दीवार है

ओशो

भगवान शिव कहते हैं, आत्मा चित्तम अर्थात आत्मा ही चित्त है। फिर यह अहंकार कहां से और कब जन्म लेता है। वास्तव में, अहंकार का जन्म नहीं होता। यह केवल छलावा है। एक मायावी आभास है। लगता है कि है, लेकिन वस्तुतः होता नहीं। ठीक क्षितिज जैसा जिसके धरती से मिलने का भ्रम होता है, लेकिन वस्तुतः ऐसी कोई जगह नहीं जहां यह दोनों मिलते हों। कांच के गिलास में अगर आप एक चम्मच डालें तो आपको वह टूटा हुआ मालूम पड़ेगा। चम्मच वास्तव में टूटा नहीं होता, बस ऐसा आभास होता है। अहंकार भी ऐसा ही झूठा आभास मात्र है, जो आत्म अज्ञान के कारण नजर आता है। वास्तव में यह होता नहीं और इसलिए अहंकार को संभालने के लिए लगातार इतनी कोशिश करनी पड़ती है। अहंकार के झूठे आभास के कारण ही हर अहंकारी दूसरे लोगों में अपनी छवि को लेकर चिंतित रहता है। इसलिए शिव ने स्वयं चित्त को ही आत्मा का, परमात्मा का हिस्सा माना। जैसे सागर की सतह पर लहरें हैं, ठीक वैसे ही परमात्मा की सतह पर चित्त है। शास्त्रों में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि बहुत से साधक अत्यधिक कठिन तपस्या करके भी परम लक्ष्य को नहीं पा सके, जबकि अनेक संत बगैर साधना के ही शिवत्व को उपलब्ध हो गए हैं। ऐसा इसलिए है कि सत्य तो कठिन नहीं होता, किंतु अहंकार कठिनता में रस लेता है। जिस अहंकार में कोई प्राण नहीं होता, वह लगातार सिद्ध करना चाहता है कि मैंने कोई कठिन कार्य किया। यह उसके लिए अस्तित्व का प्रश्न है, उसी में उसका आभास बना रहता है। अहंकार कभी परमात्मा को नहीं पाता। वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाता क्योंकि सरल और सुगम में उसका कोई रस नहीं होता। वह हमेशा ऐसा कुछ करके दिखाना चाहता है जो दूसरे लोग न कर सकें। उसीमें अहंकार अपनी धाक जमा पाता है। इसलिए जो लोग कठिन काम में लगे हैं, कष्टपूर्ण तपस्या कर रहे हैं, वह कभी परम सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते। कुछ करने का सवाल ही कहां है। कृत्य हमेशा दोयम है। इसलिए कर्मयोग को अध्यात्म का कोई बड़ा मार्ग नहीं माना गया है। यह आभासी अहंकार ही परमात्मा और व्यक्ति के बीच सबसे बड़ी दीवार है। कर्म इसे और मजबूत करता है। अहंकार के दो रूप हैं, कर्ताभाव और ज्ञाताभाव। मैं कर सकता हूं, मैं जान सकता हूं, यह दोनों बातें अहंकार को और घना करती हैं। इसलिए कठिन साधना करने वाले  अकसर चूक जाते हैं, सरल और सुगम मार्ग अपनाने वाले सुनकर ही वहां पहुंच जाते हैं। बुद्ध के प्रिय शिष्य विमलकीर्ति की कथा आपने सुनी होगी जिसने कभी कोई साधना नहीं की, कोई ध्यान नहीं किया। वह केवल बुद्ध को सुनकर ही परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया था।